पंचकोश
(Important Questions & Answers) by Pawan Sah
Download PDF Notes: https://shorturl.at/pfHkH
WhatsApp no: 84487 31058
प्रश्न 1. पंचकोशों का परिचय देते हुए उनका महत्त्व बताईये ।
उत्तर–परिचय
हमारा शरीर पांच कोशो से मिलकर बना है, क्रमशः अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमयकोश।पंचकोशिय अवधारणा तैत्तिरियोपनिषद से उत्पन्न हुई, जो कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है इनमे पांच कोशों का वर्णन किया गया है।
योग दर्शन में, शरीर को पाँच कोशों या आवरणों में विभाजित किया गया है, जो हैं: अन्नमय कोश (भौतिक शरीर), प्राणमय कोश (ऊर्जा शरीर), मनोमय कोश (मन), विज्ञानमय कोश (बुद्धि), और आनंदमय कोश (आत्मिक आनंद)
पंचकोश का महत्त्व:-
- प्रत्येक व्यक्ति को इन कोशों को जानना व समझना चाहिए। इनकों जानना व्यक्ति को आन्तरिक आनन्द तक पहुँच प्रदान करता है और जीवन में आनन्द, आन्तरिक शान्ति और सन्तोष की भावना देता है। इन कोशों को सन्तुलित व स्वस्थ्य रखने के लिये हमे नियमित योगाभ्यास, उचित आहार की आवश्यकता होती है।
- व्यक्तित्व के समग्र विकास में पाँच कोशों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनका वर्णन प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थों में किया गया है। पंचकोश का ज्ञान व्यक्ति को उसकी आंतरिक शक्तियों से परिचित कराता है। पंचकोश के अंतर्गत अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश आते हैं, इन्हें ही मानव व्यक्तित्व के पाँच आयाम कहा जाता है। ये पंचकोश ऐसी पाँच परतें हैं जो आत्मा को सुरक्षित किए हुए हैं। आत्मा या आत्मतत्त्व प्रत्येक जीव में रहने वाला परमात्मा का अंश है।
तैत्तिरियोपनिषद की ब्रह्मानन्द वल्ली में पंचकोश का वर्णन देखने को मिलता है:-
1.अन्नमय कोश:- स्थूल शरीर अन्नमय कोश का बना होता है। सूक्ष्म शरीर जो प्राणिक ऊर्जा का बना है।
2. प्राणमयकोश:- प्राणमय कोश, योग दर्शन के अनुसार, शरीर की पाँच परतों या आवरणों में से दूसरा है, जिसे प्राण ऊर्जा से बना माना जाता है, जो जीवन शक्ति को प्रवाहित करता है।
3.मनोमय कोश:- जिसमें मानव का मन व भावनाऐं सम्मिलित है।
4. विज्ञानमय कोश:- जिसमें ज्ञान, कल्पनाशक्ति, स्मृति सम्मिलित है ।
5.आनन्दमय कोश:- जो आत्मा के सबसे करीब होता है इसमें आनन्द सम्मिलित है।
प्रत्येक व्यक्ति का विकास इन पंचकोश विकास से सीधा सम्बन्ध रखता है प्रत्येक कोश के स्वस्थ होने से व्यक्ति शारिरीक, मानसिक व आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ व प्रगतिशील बनता है। प्रत्येक कोश आत्मा से भिन्न है और क्रमशः एक दुसरे में समाहित होते है।
जहां अन्नमय कोश को उचित व्यायाम, आहार-विहार द्वारा संतुलित किया जाता है। प्राणमय कोश को प्राणायाम के अभ्यास द्वारा संतुलित किया जाता है। मनोमय कोश के लिये स्वाध्याय, अच्छे साहित्य का अध्ययन उपयोगी होता है । ओर वे सभी गतिविधियां जो बुद्धि को चुनौती दे विज्ञानमय कोश का विकास करती है व आनन्दमय कोश के लिये परमात्मा से जुड़ाव के लिये की जाने वाली क्रियाऐं सम्मिलित होती है।
निष्कर्ष:
इस प्रकार हमें अपने शरीरस्थ इन कोशों को जानना व समझना चाहिए व स्वस्थ जीवन के लिये इन्हें संतुलित बनाये रखना आवश्यक है।
प्रश्न 2. मानवीय व्यक्तित्व के पाँच आयाम कौन से हैं? वर्णन कीजिए। अथवा प्रश्न मनुष्य जीवन की परिपूर्णता के लिए मानवीय व्यक्तित्व के पाँच आयाम किस प्रकार उपयोगी हैं ? स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर– परिचय
व्यक्तित्व के समग्र विकास में पाँच कोशों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनका वर्णन प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थों में किया गया है। पंचकोश का ज्ञान व्यक्ति को उसकी आंतरिक शक्तियों से परिचित कराता है। पंचकोश के अंतर्गत अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश आते हैं, इन्हें ही मानव व्यक्तित्व के पाँच आयाम कहा जाता है। ये पंचकोश ऐसी पाँच परतें हैं जो आत्मा को सुरक्षित कि हुए हैं। आत्मा या आत्मतत्त्व प्रत्येक जीव में रहने वाला परमात्मा का अंश है।
व्यक्तित्वका अर्थ:- आधुनिक शिक्षा प्रणाली के अनुसार व्यक्तित्व शब्द अंग्रेजी के पर्सनेलिटी शब्द का हिंदी रूपांतरण है। पर्सनेलिटी शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के परसोना शब्द से हुई है जिसका अर्थ है नकाब, मास्क, मुखौटा । यूनानी लोग मुखौटा पहनकर मंच पर अभिनय
मानवीय व्यक्तित्व के पाँच आयाम:
1.अन्नमय कोश:- अन्नमय कोश अर्थात् अन्न से ही पुरूष वृद्धि को प्राप्त होता है।भौतिक शरीर को अन्नमय कोश कहा जाता है जिसमें त्वचा, मांसपेशियां, ऊत्तक, वसा व हड्डिया होती है। इस कोश का अस्तित्व भोजन के सेवन द्वारा बना रहता है इसिलिये वैदिक ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है उचित व्यायाम और उचित आहार दिया जायें तो अन्नमय कोश अच्छे से विकसित होता है। अन्नमय कोश को सर्वऔषध कहा गया है। इसका सम्बन्ध स्थूल शरीर से है । इसे स्थूल शरीर भी कहते हैं। यह अन्न आदि सेवन करने योग्य पदार्थ से प्रत्यक्ष रूप में दिखने वाले शरीर को शक्ति और स्वास्थ्य प्रदान करता है। उचित आहार-विहार से इसे स्वस्थ रखा जाता है।
2.प्राणमय कोश: – शक्ति और ऊर्जा का केंद्र स्वरूप को प्राणमय कोश कहा जाता है । यह सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत आता है। शरीर द्वारा सेवन करने योग्य भोज्य पदार्थों को ऊर्जा और शक्ति में बदलकर यह शरीर का पालन व पोषण करता है।
प्राणमय कोश अर्थात् प्राण ही समस्त प्राणियों की आयु है । इस कोश को सर्वायु कहा गया है। प्राणमय कोश प्राणिक शरीर हे यह अन्नमय कोश की अन्तर आत्मा है। भौतिक व प्राणिक शरीर मिलकर मनुष्य की मूलभूत संरचना का निर्माण करते है । प्राणमय कोश भौतिक शरीर की प्रत्येक कोशिका में प्राण का संचार करता है। प्राणिक शरीर का आकार भौतिक शरीर के समान ही होता है। प्राणमय कोश को स्वस्थ बनाये रखने के लिये प्राणायाम का उचित अभ्यास आवश्यक होता है।
3.मनोमय कोश: – मनोमय कोश मन की भावनाओं और तंत्रिका तन्त्र के बीच गहरे जुड़ाव का प्रतिनिधित्व करता है । यह अन्नमय और प्राणमय कोश को एक ईकाई के रूप में बनाये रखता है। हम जो देखते है, सुनते हैं, एवं जो इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है वह मस्तिष्क में संग्रहित होता है और मस्तिष्क से हमारी भावनाओं के अनुसार रसायनों का स्त्राव होता है जिससे विचार बनते है जैसे विचार बनते है वैसे ही हमारा मन स्पंदन करता है इसे मनोमय कोश कहते है।
मनोमय कोश को स्वस्थ बनाये रखने के लिये नियमित प्रार्थना, संकल्प लेने और उन्हें पूरा करने के द्वारा मन की शक्ति में वृद्धि होती है। अनियंत्रित मनोमय कोश व्यक्ति के दुःखों का कारण बनता है, क्योंकि मन की शक्तियाँ अनंत हैं। उसकी चंचलता व्यक्ति को व्याकुल कर देती है। ध्यान, अभ्यास व सात्विक भोजन द्वारा इसे संयमित व नियंत्रित किया जाता है। यह भी सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत आता है। शरीर में स्थित कर्मेंद्रियाँ (हस्त पाद, वाक्, पायु, उपस्थ) जो शरीर को नियंत्रित कर इसे संयमित दिनचर्या हेतु प्रेरित करती हैं।
4. विज्ञानमय कोश: – अर्न्तज्ञान से बना कोश विज्ञानमय कोश है। इस कोश में हम अपनीबुद्धि तक पहुंचते है। यह हमारी जागरूकता व चेतना से जुडा है जब यह कोश जागृत होता है तो अभिव्यक्त जगत के पिछे छुपी वास्तविकता को समझने लगता है। विज्ञानमय कोश मनोमय कोश में व्याप्त है और मनोमय से भी अधिक सुक्ष्म है। इसमें प्रज्ञाबुद्धि की जागृति होती है। इसके अंतर्गत पाँच ज्ञानेंद्रियाँ – नाक, कान, आंख, जिवा और त्वचा एवं बुद्धि और चित्त आते हैं। ज्ञानेंद्रिय ही स्वस्थ मनुष्य के जीवन का आधार है, इनको स्वस्थ रखकर मनुष्य क्रियाशीलता के द्वारा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति भी कर सकता है। इस प्रकार प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय तीनों सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत कहे गए हैं।
5.आनन्दमय कोश: – यह सबसे अधिक सूक्ष्म कोश है यह कारण शरीर कहलाता है। यहसबसे सूक्ष्म प्राणों का निवास स्थान है। यह कोश शुद्ध और उज्जवल आन्नद का प्रतिनिधित्व करता है, जिस प्रकार गहरी निंद की स्थिति में भी हमारा अस्तित्व बना रहता है उसी प्रकार यह कोश है। आनन्दमय कोश विज्ञानमय कोश का नियन्त्रण करता है । यह आन्नद, प्रेम और शान्ति का पर्याय है । यह आत्मा के सबसे करीब होता है ।
प्रसन्नता, आनंद, खुशी की प्राप्ति होना आनंदमय कोश की अनुभूति कराता है। मनुष्य जब प्रसन्न होता है, अच्छा कार्य करने पर सफलता पाता है तो इसके फलस्वरूप जो अद्भुत आनंद की अनुभूति होती है, वही आनंदमय कोश है इसे कारण शरीर कहा जाता है।
निष्कर्ष:
व्यक्ति इन पाँच कोशों का ज्ञान प्राप्त करके, इनको स्वस्थ रखकर शारीरिक और मानसिक विकारों को नष्ट करके परम आनंद की प्राप्ति कर सकता है, जो सभी दर्शनों द्वारा बताया जाने वाला मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है इसे ही मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण आदि के नाम से कहा गया है ।
प्रश्न 3. सत् चित् आनंद से आप क्या समझते हैं? वर्णन कीजिए ।
उत्तर– परिचय
सत् चित् आनंद” भारतीय दर्शन और विशेष रूप से वेदांत में एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। इसे ब्रह्म, यानी परम वास्तविकता या परमात्मा का स्वाभाविक स्वरूप माना जाता है।
शंकराचार्य का मत:- आत्मा या चेतना का स्वरूप इस विषय में आदि शंकराचार्य का मत है कि तीन शरीर, तीन अवस्था, पाँच कोश – यह सब आत्मा नहीं है अपितु आत्मा सत्-चित्- आनंद स्वरूप है ।
सत्-चित्-आनन्द:- सत् (Sat): अर्थ: सत्य, अस्तित्व, शाश्वतता। “सत्” उस शाश्वत सत्य और वास्तविकता को संदर्भित करता है, जो हमेशा मौजूद है और कभी नहीं बदलता। यह अस्तित्व की अनंत और अपरिवर्तनीय प्रकृति है। यह वह सत्य है जो समय, स्थान और परिस्थिति से परे है।
सत् का अर्थ है भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में जो नाश को प्राप्त नहींहोता ।
चित् (Chit): अर्थ: चेतना, ज्ञान। चित् का अर्थ ज्ञान स्वरूप होता है अर्थात् संपूर्ण जगत् को ऊर्जा देने वाला, अद्वितीय, सभी का साक्षी चित् अर्थात चेतन कहा जाता है। “चित्” शुद्ध चेतना और ज्ञान का प्रतीक है। यह आत्मा की वह अवस्था है, जिसमें वह अपने शुद्ध और वास्तविक स्वरूप में होती है। यह ब्रह्म की सर्वज्ञता और साक्षात्कार की स्थिति है, जहाँ आत्मा सम्पूर्ण ज्ञान और विवेक के साथ स्वयं को जानती है।
आनंद (Ananda): अर्थ: आनंद, परमानंद। “आनंद” आत्मिक सुख, प्रसन्नता और शांति का प्रतीक है। यह बाहरी सुख-दुख से परे, आंतरिक शांति और संतोष की अवस्था है। यह आत्मा की उस अवस्था को दर्शाता है, जिसमें वह अपनी पूर्णता और अनंतता का अनुभव करती है। आनंद का अर्थ है कि आत्मा सुखस्वरूप है इसमें दुःख लेश मात्र भी नहीं है । चैतन्य आत्मा की सत्ता से अनेक सांसारिक पदार्थ बनते रहते हैं लेकिन यह आत्मा अपनेसुख स्वरूप को नहीं त्यागता क्योंकि आत्मा सुख स्वरूप वाला है इसी को आनंद कहा जाता है।
महत्व:- “सत् चित् आनंद” का संयोजन ब्रह्म या परमात्मा की उस अवस्था को दर्शाता है,जिसमें सत्य, चेतना, और आनंद की त्रयी एक साथ उपस्थित होती है। यह त्रयी आत्मा की सर्वोच्च और वास्तविक अवस्था को व्यक्त करती है। वेदांत के अनुसार, “सत् चित् आनंद” आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है,जिसे हम भूल जाते हैं और माया (भ्रम) के कारण संसार में उलझ जाते हैं। आत्म-साक्षात्कार या ब्रह्म साक्षात्कार के माध्यम से हम इस शुद्ध, अनंत और आनंदमय अवस्था को पुनः प्राप्त कर सकते हैं।
निष्कर्ष:
“सत् चित् आनंद” एक आदर्श और आद्यात्मिक लक्ष्य है, जो हमें आत्मा की शाश्वत सत्यता, शुद्ध चेतना, और अनंत आनंद की ओर प्रेरित करता है। यह भारतीय दर्शन में मुक्ति या मोक्ष की सर्वोच्च अवस्था का प्रतीक है, जहाँ आत्मा अपनी वास्तविकता को पहचान कर परम सुख का अनुभव करती है।
प्रश्न 4. स्वस्थ रहने के लिए संतुलित आहार एवं व्यायाम की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर– परिचय
स्वस्थ जीवन जीने के लिए संतुलित आहार और नियमित व्यायाम का महत्वअनिवार्य है। बदलते जीवनशैली, बढ़ती व्यस्तता, और खान-पान की आदतों में हो रहे बदलाव के कारण हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे में, संतुलित आहार और व्यायाम न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में सहायक होते हैं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक संतुलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
WHO के अनुसार स्वास्थ्य की परिभाषा: –
“किसी व्यक्ति की मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रुप से अच्छे होने की स्थिति को स्वास्थ्य कहते हैं” अंग्रेजी में एक कहावत है:- If wealth is lost, nothing is lost. If health is lost, something is lost. If character is lost, everything is lost. आचार्य सुश्रुत ने स्वास्थ्य की एक अद्भुत परिभाषा दी है।
उनका कथन है:– जिस पुरुष के दोष (शारीरिक और मानसिक) धातु (सात धातुएँ – रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र), मल – (मूत्र, पुरीष, स्वेद) और अग्नि व्यापार सम हों अर्थात विकार रहित हों तथा जिसकी इंद्रियाँ, मन और आत्मा प्रसन्न हो, वही स्वस्थ है।
श्रीमद्भगवद्गीताके अनुसार: श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्वस्थ जीवन के लिए निश्चित ही प्राकृतिक और नियमित आहार-विहार, समय परसोनाऔर जागरण आवश्यक है और जो व्यक्ति प्रकृति के साथ स्वास्थ्य संबंधी सिद्धांतों का पालन नहीं करता, प्रकृति उसे रोग ग्रस्त कर देती है।
स्वस्थ रहने के लिए संतुलित आहार एवं व्यायाम की आवश्यकता:- संतुलित आहार:
- संतुलित आहार का तात्पर्य ऐसे भोजन से है, जिसमें सभी आवश्यक पोषक तत्व –कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन्स, विटामिन्स, मिनरल्स और फैट्स उचित मात्रा में मौजूद हों। यह न केवल शारीरिक विकास और ऊर्जा के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि रोग-प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाता है।
- हमारे शरीर के अंग-प्रत्यंग स्वस्थ रहें, सुचारू रूप से कार्य करें, इसके लिए नियमित रूप से उसका ध्यान रखने की आवश्यकता है। सही भोजन, नियमित व्यायाम, पर्याप्त निद्रा लेना अनिवार्य है और हानिकारक पदार्थों जैसे तंबाकू, मदिरा, नशा आदि केसेवन से बचाना आवश्यक है। वास्तव में जीवन की सार्थकता स्वास्थ्य से ही है। भारतीय प्राचीन शास्त्रों में स्वास्थ्य के महत्त्व को बताते हुए इसे पुरुषार्थ चतुष्टय का मूल आधार माना गया है।
- स्वस्थ रहने के लिए संतुलित आहार और व्यायाम दोनों का समुचित संयोजन अत्यंत आवश्यक है। जहां संतुलित आहार शरीर को आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करता है, वहीं व्यायाम इन तत्वों का सही उपयोग सुनिश्चित करता है। दोनों के संयुक्त प्रयास से न केवल शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर होता है, बल्कि व्यक्ति मानसिक और भावनात्मक रूप से भी संतुलित और खुशहाल रहता है।
सन्तुलित आहार – शास्त्रीय दृष्टि
- आहार के विषय में भगवद्गीता के 17वें अध्याय में कहा गया है कि सभी मनुष्यों को तीन प्रकार का आहार त्रिगुणात्मिका प्रकृति के अनुसार प्रिय होता है। अन्य शब्दों में, आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और रसास्वादन की शक्ति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त चिकने, स्थिरता प्रदान करने वाले, हृदय शक्तिवर्धक आहार सात्विक बुद्धि के लोगों को प्रिय होते हैं।
- कटु अर्थात् कड़वे, चरपरे, खट्टे, नमकीन, बहुत गर्म, तीखा, रुक्ष और जलन पैदा करने वाले आहार रजोगुणी लोगों को प्रिय होते हैं। ये आहार दुःख, शोक और रोग को देने वाले होते हैं।
- जो सारहीन, रसहीन, दुर्गंधयुक्त बासी इसके अतिरिक्त झूठे और अपवित्र भोजन हैं वह तमस् प्रकृति का होता है और तामसिक प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों को प्रिय होता है।
सन्तुलित आहार – आधुनिक दृष्टि
- संतुलित आहार से तात्पर्य ऐसे भोजन से है जो शारीरिक क्रिया और मानसिक विकास में सहायक हो, ऊर्जा और शक्ति देने वाला, स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने वाला, रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाला हो- ऐसे भोजन में प्रोटीन, कार्बोज, विटामिन, खनिज लवण, जल आदि की उचित मात्रा होनी चाहिए जिसके द्वारा शरीर की भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके, इसी को संतुलित आहार कहा गया है और इसके द्वारा शरीर को पर्याप्त मात्रा में पोषण प्राप्त होता है ।
- आधुनिक खान-पान की यह विसंगति है कि जब शरीर श्रम करता है तब उसे कम आहार दिया जाता है और जब वह विश्राम की अवस्था में होता है तब उसे अधिकतम कैलोरी युक्त आहार दिया जा रहा है। दिन में व्यक्ति चाय, नाश्ता, कॉफी, ठंडा पेय आदि जब जैसे जहाँ मिल जाए इसका सेवन कर रहा है और रात्रि में विश्राम के समय या सोने से पहले वह गरिष्ठ भोजन का सेवन करता है, जो कि स्वास्थ्य के सिद्धांतों के एकदम विपरीत है।
- अतः भोजन संतुलित पौष्टिक, सुपाच्य और स्वास्थ्य को बढ़ाने वाला होना चाहिए। भोजन पर खिलाने वाले के आचरण का मन के भावों की शुद्धता और सकारात्मकता का भी प्रभाव पड़ता है।
संतुलित आहार के फायदे:
- ऊर्जा प्राप्ति: शरीर को दैनिक गतिविधियों के लिए आवश्यक ऊर्जा मिलती है।
- रोग-प्रतिरोधक क्षमता: विटामिन्स और मिनरल्स शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाते हैं।
- वजन नियंत्रण: उचित मात्रा में पोषक तत्व लेने से वजन संतुलित रहता है।
- मांसपेशियों और हड्डियों की मजबूती: प्रोटीन और कैल्शियम युक्त आहार मांसपेशियों और हड्डियों को मजबूत बनाते हैं।
व्यायाम: व्यायाम शारीरिक क्रियाओं का एक समूह है, जो मांसपेशियों को सक्रिय करता है और शरीर को चुस्त-दुरुस्त बनाता है। व्यायाम न केवल शारीरिक फिटनेस को बढ़ाता है, बल्कि मानसिक तनाव को भी कम करता है।जो लोग नियमित रूप से व्यायाम करते हैं उनमें हृदय रोग, टाइप 2 मधुमेह, स्ट्रोक और कुछ कैंसर जैसी कई दीर्घकालिक (पुरानी) स्थितियां विकसित होने का जोखिम कम होता है।
आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार: आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार जिस कार्य से शरीर में थकान का अनुभव हो उसको व्यायाम कहा जाता है। प्रतिदिन व्यायाम करने से शरीर शुद्ध और बलवान् बना रहता है।
आयुर्वेद के अनुसार:
- शक्ति से अधिक व्यायाम नहीं करना चाहिए वह शरीर को नुकसान दे सकता है । व्यायाम अपनी आधी शक्ति अर्थात् माथे पर पसीना आने तक करना चाहिए। वैसे तो प्रायः सभी ऋतुओं में व्यायाम करना लाभदायक है किन्तु हेमंत, शिशिर और वसंत ऋतु में अपनी आधी शक्ति से व्यायाम करें अन्य शेष ग्रीष्म, वर्षा और शरद ऋतु में आधी शक्ति से भी थोड़ा व्यायाम करना चाहिए ।
- व्यायाम करने के पश्चात् संपूर्ण शरीर को सुखपूर्वक इस स्थिति में करें जिससे किसी प्रकार का कष्ट ना हो और शरीर की थकान भी समाप्त हो जाए।
- व्यायाम करने से शरीर में हल्कापन और लघुता आती है और कार्यक्षमता अधिक हो जाती है। व्यायाम सदैव अपनी शक्ति के अनुसार ही करना चाहिए। व्यायाम से शरीर दृढ़ हो जाता है, प्राचीन काल से ही प्रातः काल की सैरकरना स्वास्थ्य के लिए अति उत्तम माना गया है।
- आयुर्वेद में चरक संहिता के अंतर्गत आचार्य चरक ने ऋतुचर्या का वर्णन करते हुए प्रत्येक ऋतु में आहार-विहार के अंतर्गत व्यायाम को भी मुख्य स्थान दिया है तथा इसके लाभ बताए हैं।
व्यायाम के फायदे:
- हृदय स्वास्थ्य: नियमित व्यायाम से हृदय की धड़कनें मजबूत होती हैं और रक्त संचार सुचारु रहता है।
- वजन नियंत्रण: नियमित शारीरिक गतिविधि से कैलोरी बर्न होती है, जिससे वजन संतुलित रहता है।
- मांसपेशियों और हड्डियों की मजबूती: व्यायाम से मांसपेशियों और हड्डियों की मजबूती बढ़ती है।
- मानसिक स्वास्थ्य: व्यायाम से एंडोर्फिन्स (सुखद हार्मोन) का स्त्राव बढ़ता है, जिससे मानसिक तनाव और अवसाद कम होता है।
निष्कर्ष:
स्वस्थ जीवन जीने के लिए संतुलित आहार और नियमित व्यायाम को जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा बनाना आवश्यक है। इन दोनों के संतुलन से हम न केवल बीमारियों से बच सकते हैं, बल्कि एक सक्रिय, ऊर्जावान और खुशहाल जीवन जी सकते हैं। अतः, अपने दैनिक जीवन में संतुलित आहार और व्यायाम को शामिल करके हम स्वस्थ और खुशहाल जीवन की दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं।
प्रश्न 5. प्राणायाम किस प्रकार स्थूल शरीर एवं मन को प्रभावित करताहै ?
उत्तर–परिचय
प्राणायाम योग की एक महत्वपूर्ण विधि है जो श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया को नियंत्रित करने पर आधारित है। यह न केवल स्थूल शरीर, बल्कि मन को भी गहराई से प्रभावित करता है। यह स्थूल शरीर एवं मन को प्रभावित करता है। शरीर अंदर से मन से संबंधित है अर्थात् मन का ही प्रतिरूप है। शरीर कहीं भी कष्ट पाता है तो तुरंत मन उससे प्रभावित हो जाता है तो शरीर भी ठीक से कार्य नहीं करता । शारीरिक स्वास्थ्य की अपेक्षा मानसिक स्वास्थ्य अधिक आवश्यक है । मन स्वस्थ रहेगा तो शरीर भी अवश्य स्वस्थ रहेगा । मन पवित्र रहा तो विचार भी शुद्ध रहेंगे और विचार शक्ति सुदृढ़ होगी ।
हमारी वैचारिक शक्ति से ही व्यक्तित्व का निर्माण होता है। अच्छे विचारों से मन उन्नत और हृदय विशाल होता है। बुरे विचारों से मन उत्तेजित होता है और भावनाएँ दूषित हो जाती हैं। जिनमें विचार और वाणी का नियमन करने की थोड़ी सी भी शक्ति है उनका चेहरा शांत, गंभीर, सुंदर और आकर्षक होता हैऔर उनकी वाणी मधुर होती है ।
अन्नमय कोश :इसे स्थूल शरीर भी कहते हैं । यह अन्न आदि सेवन करने योग्य पदार्थ से प्रत्यक्ष रूप में दिखने वाले शरीर को शक्ति और स्वास्थ्य प्रदान करता है उचित आहार-विहार से इसे स्वस्थ रखा जाता है।
स्थूल शरीर की संरचना:
- स्थूल शरीर पंचमहाभूतों से पंचीकृत और सत्कर्मों से उत्पन्न होता है, सुख – दुःख आदि भोगों का स्थान भी यह स्थूल शरीर है। इसमें छः विकार होते हैं जैसे- यह जन्म लेता है, बढ़ता है, परिवर्तनशील है, क्षीण होता है और नष्ट हो जाता है। ये छः विकार स्थूल शरीर में ही होते हैं।
- पंचकोशों के अंतर्गत अन्नमय कोश स्थूल शरीर कहलाता है
- वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर स्थूल शरीर से सम्बन्धित अंगों का विवेचन मिलता है।
- वैदिक साहित्य में स्थूल शरीर संरचना के अंगों के रूप में ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का पद-पद पर विशेष रूप से उल्लेख मिलता है।
स्थूल शरीर पर प्रभाव:
- श्वास प्रणाली का सुधार: प्राणायाम से फेफड़ों की क्षमता बढ़ती है और श्वसन क्रिया बेहतर होती है। यह ऑक्सीजन के आदान-प्रदान को अधिक प्रभावी बनाता है।
- रक्त संचार: नियमित प्राणायाम से रक्त संचार सुधरता है, जिससे शरीर के विभिन्न अंगों में अधिक ऑक्सीजन पहुँचता है।
- प्रतिरक्षा प्रणाली का सुदृढ़ीकरण: प्राणायाम से प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत होती है, जिससे शरीर बीमारियों से लड़ने में अधिक सक्षम होता है।
- पाचन क्रिया: कुछ विशेष प्राणायाम विधियाँ पाचन क्रिया को उत्तेजित करती हैं, जिससे गैस, एसिडिटी और कब्ज जैसी समस्याओं में राहत मिलती है।
- मांसपेशियों की टोनिंग: प्राणायाम से मांसपेशियों को टोन मिलता है और शरीर की स्थिरता और संतुलन में सुधार होता है।
मन पर प्रभाव:
- मनोवैज्ञानिक संतुलन: प्राणायाम से मस्तिष्क को अधिक ऑक्सीजन मिलती है, जिससे मनोवैज्ञानिक संतुलन बना रहता है और तनाव, चिंता, और अवसाद जैसी समस्याओं में कमी आती है।
- एकाग्रता एवं ध्यान: नियमित प्राणायाम से ध्यान और एकाग्रता में सुधार होता है, जिससे मानसिक कार्यक्षमता बढ़ती है।
- भावनात्मक स्थिरता: प्राणायाम से व्यक्ति की भावनाओं पर नियंत्रण बढ़ता है और उसे शांतिपूर्ण और सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने में सहायता मिलती है।
- नींद की गुणवत्ता: प्राणायाम नींद की गुणवत्ता में सुधार करता है, जिससे अनिद्रा जैसी समस्याओं में राहत मिलती है।
- आत्म-जागरूकता: प्राणायाम अभ्यास से आत्म-जागरूकता बढ़ती है, जिससे व्यक्ति अपने अंदर की भावनाओं और विचारों को अधिक स्पष्टता से समझ पाता है।
- मन को संयमित करने की विधि एवं लाभ – सर्वप्रथम फल की कामना से उत्पन्न होने वाली सभी कामनाओं को निश्चित रूप से छोड़ दें। फिर इंद्रिय समूह की विषय वासना उत्पन्न होने से पहले ही उसे मन के द्वारा रोकें तथा धैर्य से संभाली हुई बुद्धि से धीरे-धीरे शांति की प्राप्ति करें। मन को अपने वश में करके कुछ भी चिंतन ना करें अर्थात् शून्यता का भाव लायें।अपनी अस्थिरता के कारण यह चंचल मन जहाँ कहीं भी निकल कर भागे वहाँ से इसे पकड़कर अपने वश में ले आएँ। इस प्रकार जब मन शांत हो जाता है तब उत्तम सुख की प्राप्ति होती है
निष्कर्ष:
प्राणायाम एक सशक्त उपकरण है जो शरीर और मन दोनों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इसके नियमित अभ्यास से न केवल शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार होता है, बल्कि मानसिक शांति और संतुलन भी प्राप्त होता है। यह व्यक्ति को सम्पूर्ण स्वास्थ्य और कल्याण की दिशा में मार्गदर्शन करता है।
प्रश्न 6.श्वास प्रक्रिया का मन और शरीर से क्या सम्बन्ध है?स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर– परिचय
श्वास प्रक्रिया का शरीर और मन दोनों से गहरा और अभिन्न सम्बन्ध है। यह प्रक्रिया न केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत आवश्यक है। श्वास पर ध्यान केंद्रित करके हम न केवल अपनी शारीरिक स्थिति को सुधार सकते हैं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को भी बेहतर बना सकते हैं। प्राणायाम और ध्यान जैसी श्वास तकनीकें इस सम्बन्ध को समझने और उसे बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
शरीर से सम्बन्ध:
- ऑक्सीजन आपूर्ति:श्वास के माध्यम से शरीर को ऑक्सीजन प्राप्त होती है, जो रक्त के माध्यम से सभी अंगों और कोशिकाओं तक पहुँचती है। यह ऊर्जा उत्पादन के लिए आवश्यक है।
- कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन:श्वास के माध्यम से शरीर से कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य अवांछित गैसों को बाहर निकाला जाता है, जिससे शरीर का संतुलन बना रहता है।
- ऊर्जा उत्पादन:ऑक्सीजन कोशिकाओं में प्रवेश कर ऊर्जा उत्पादन के लिए इस्तेमाल होती है, जिससे शरीर की चयापचय प्रक्रियाएँ संचालित होती हैं।
- बॉडी टेम्परेचर:श्वास की गति और गहराई शरीर के तापमान को नियंत्रित करने में मदद करती है।
- हृदय गति:श्वास और हृदय गति के बीच सीधा सम्बन्ध होता है। धीमी और गहरी श्वास हृदय गति को स्थिर करती है, जबकि तीव्र श्वास हृदय गति को बढ़ाती है।
मन से सम्बन्ध:
- तनाव में कमी:गहरी और धीमी श्वास लेने से पैरासिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम सक्रिय होता है, जो तनाव और चिंता को कम करता है।
- तुरंत राहत:तेज़ और गहरी श्वास लेने से मानसिक तनाव और चिंता में तत्काल राहत मिलती है।
- भावनात्मक संतुलन:नियमित श्वास अभ्यास से मनोवैज्ञानिक स्थिरता और भावनात्मक संतुलन में सुधार होता है।
- सकारात्मकता:श्वास पर ध्यान केंद्रित करने से सकारात्मक भावनाओं का विकास होता है।
- ध्यान बढ़ना:श्वास पर ध्यान केंद्रित करने से ध्यान और एकाग्रता में सुधार होता है। यह मानसिक स्पष्टता और संज्ञानात्मक कार्यक्षमता को बढ़ाता है।
- मूड सुधारना: गहरी और नियमित श्वास लेने से मूड में सुधार होता है और सकारात्मक भावनाओं का अनुभव होता है।
- भावनात्मक प्रतिक्रिया: श्वास की गति और गहराई भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करती है।
निष्कर्ष:
सांस और मन एक दूसरे की रूप हैं। सांस की गति हमारे विचारों का आइना हैं। यदि सांस तेज है तो विचार तेज है,मन तेज दौड़ रहा है। सांस ही वो इकाई जो हमारे शरीर और दिमाग के अंदर के संसार को जोड़ती है।
प्रश्न 7. मन को संयमित करके निश्चयात्मक एवं विवेकशील कैसे हुआ जा सकता है?
उत्तर– परिचय
मन को संयमित करके निश्चयात्मक (निर्णायक) एवं विवेकशील (समझदार) बनने के लिए योग, ध्यान, प्राणायाम, और सकारात्मक मानसिक दृष्टिकोण का अभ्यास महत्वपूर्ण है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण कदम दिए गए हैं जिनसे मन को संयमित करके निश्चयात्मक और विवेकशील बनाया जा सकता है:
मन का नियन्त्रण:-
मन के विषय में भगवद्गीता में विस्तृत विवेचन मिलता है । मन की चंचलता, मन के संयम की विधि और लाभ बताते हुए मन को नियंत्रित करने के उपायों की चर्चा की गई है। यह अत्यंत रोचक ढंग से कृष्ण और अर्जुन के संवाद के रूप में वर्णित है।
मन को संयमित करने की विधि एवं लाभ – सर्वप्रथम फल की कामना से उत्पन्न होने वाली सभी कामनाओं को निश्चित रूप से छोड़ दें। फिर इंद्रिय समूह की विषय वासना उत्पन्न होने से पहले ही उसे मन के द्वारा रोकें तथा धैर्य से संभाली हुई बुद्धि से धीरे-धीरे शांति की प्राप्ति करें। मन को अपने वश में करके कुछ भी चिंतन ना करें अर्थात् शून्यता का भाव लायें। अपनी अस्थिरता के कारण यह चंचल मन जहाँ कहीं भी निकल कर भागे वहाँ से इसे पकड़कर अपने वश में ले आएँ। इस प्रकार जब मन शांत हो जाता है तब उत्तम सुख की प्राप्ति होती है।
1.ध्यान (Meditation)
नियमित अभ्यास: प्रतिदिन कुछ समय ध्यान के लिए समर्पित करें। ध्यान से मन की शांति और स्पष्टता बढ़ती है।
विपश्यना ध्यान: इस ध्यान तकनीक से आत्म-जागरूकता बढ़ती है और मन की गहराईयों में जाकर विचारों को समझा जा सकता है।
2.प्राणायाम (Breathing Exercises)
अनुलोम-विलोम: यह प्राणायाम श्वास को नियंत्रित करने और मन को शांत करने में मदद करता है।
भ्रामरी प्राणायाम: इससे मन की अशांति दूर होती है और मानसिक स्थिरता मिलती है।
3.योग (Yoga)
आसन: योगासन से शरीर और मन का संतुलन बनता है। ताड़ासन, वृक्षासन, और शवासन जैसी मुद्राएं मन को शांत करने में सहायक होती हैं।
प्राणायाम: योग के साथ प्राणायाम का अभ्यास मानसिक स्पष्टता और निर्णय क्षमता को बढ़ाता है।
4.मानसिक प्रशिक्षण (Mental Training)
सकारात्मक सोच: सकारात्मक सोच और दृष्टिकोण से नकारात्मक विचारों को दूर किया जा सकता है।
आत्म-निरीक्षण: नियमित आत्म-निरीक्षण से आप अपने विचारों और भावनाओं को समझ सकते हैं और उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं।
5.समय प्रबंधन (Time Management)
प्राथमिकताएँ तय करें: महत्वपूर्ण कार्यों की प्राथमिकताएँ तय करें और समय का सही प्रबंधन करें।
लक्ष्य निर्धारण: छोटे और स्पष्ट लक्ष्यों को निर्धारित करें और उन पर ध्यान केंद्रित करें।
6.अध्ययन और ज्ञान (Study and Knowledge)
पढ़ाई और अनुसंधान: ज्ञान बढ़ाने के लिए नियमित अध्ययन करें। यह निर्णय लेने की क्षमता और विवेक को बढ़ाता है।
महान व्यक्तियों का अनुसरण: महान व्यक्तियों की जीवनशैली और उनके विचारों का अध्ययन करें और उनसे प्रेरणा लें।
7.संतुलित जीवन शैली (Balanced Lifestyle) स्वास्थ्यकर आहार: संतुलित और पोषक आहार लें जिससे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर हो।
नियमित व्यायाम: शारीरिक व्यायाम से तनाव कम होता है और मन को शांति मिलती है।
8.आत्म-स्वीकृति और धैर्य (Self-Acceptance and Patience) आत्म-स्वीकृति: अपनी कमियों और कमजोरियों को स्वीकार करें और उन्हें सुधारने का प्रयास करें। धैर्य: धैर्य रखें और कठिन परिस्थितियों में भी शांत और संयमित बने रहें।
9.सलाह और मार्गदर्शन (Counselling and Guidance) गुरु या मेंटर: किसी अनुभवी गुरु या मेंटर का मार्गदर्शन लें जो आपको सही दिशा में मार्गदर्शन कर सके। सहयोग: आवश्यक होने पर दोस्तों, परिवार, या पेशेवर सलाहकार से सहायता लें।
10.आत्म-नियंत्रण (Self-Control)
आत्म-नियंत्रण का अभ्यास: अपनी इच्छाओं और आवेगों को नियंत्रित करने का अभ्यास करें।
विचारों का निरीक्षण: अपने विचारों और भावनाओं का निरीक्षण करें और उन्हें सकारात्मक दिशा में मोड़ने का प्रयास करें।
मन के नियंत्रण के उपाय:– मन बहुत चंचल है और बड़ी कठिनता से वश में आने वाला है लेकिन अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है। योगदर्शन में भी चित्त्वृत्तियों के निरोध का उपाय अभ्यास और वैराग्य को ही बताया गया है ।
अभ्यास- किसी भी कार्य को बार-बार करने का नाम अभ्यास है और मन को किसी लक्ष्य या अभीष्ट विषय में लगाकर उसे अन्य विषयों से बार-बार हटाने के लिए किए जाने वाले प्रयत्न का नाम ही अभ्यास है। योग दर्शन में भी कहा गया है – लक्ष्य में स्थिति के लिए तप, श्रद्धा आदि पूर्वक किया गया अभ्यास दृढ़ होता है।
निष्कर्ष:
इन तरीकों का नियमित अभ्यास करके मन को संयमित किया जा सकता है, जिससे आप निश्चयात्मक और विवेकशील बन सकते हैं। यह प्रक्रिया समय ले सकती है, लेकिन निरंतर अभ्यास और धैर्य से आप अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
प्रश्न 8.विवेकशील होने के लिए नियंत्रित मन की भूमिका पर प्रकाश डालिए।
उत्तर– परिचय
विवेकशीलता का अर्थ है निर्णय लेने और कार्य करने में समझदारी और सूझबूझ का परिचय देना। विवेकशील व्यक्ति अपने कार्यों के संभावित परिणामों को भली-भांति समझता है और तदनुसार संतुलित और नैतिक निर्णय लेता है। इसमें नियंत्रित मन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
विवेकशील होने के लिए नियंत्रित मन की भूमिका:-
1.ध्यान और एकाग्रता में सुधार
ध्यान केंद्रित करना: नियंत्रित मन ध्यान और एकाग्रता को बढ़ावा देता है। एकाग्र मन वाले व्यक्ति अपने कार्यों और विचारों पर बेहतर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, जिससे निर्णय लेने की क्षमता में सुधार होता है।
व्यवधानों से मुक्त: मन को नियंत्रित करने से बाहरी और आंतरिक व्यवधानों से बचा जा सकता है, जिससे व्यक्ति विवेकपूर्ण निर्णय ले सकता है।
2.भावनात्मक स्थिरता
भावनाओं का प्रबंधन: नियंत्रित मन भावनाओं को संतुलित रखने में मदद करता है। विवेकशील निर्णय लेने के लिए भावनात्मक स्थिरता आवश्यक है, क्योंकि अत्यधिक क्रोध, भय, या उत्साह जैसे भावनात्मक अवस्थाएँ निर्णय को प्रभावित कर सकती हैं।
तनाव प्रबंधन: नियंत्रित मन तनाव को कम करने में मदद करता है, जिससे मानसिक स्पष्टता बढ़ती है और व्यक्ति अधिक तार्किक और संतुलित निर्णय ले सकता है।
3.स्व-जागरूकता और आत्म-निरीक्षण
आत्म-निरीक्षण: नियंत्रित मन व्यक्ति को अपने विचारों, भावनाओं, और कार्यों का निरीक्षण करने की क्षमता प्रदान करता है। आत्म-निरीक्षण से व्यक्ति अपने निर्णयों के गुण-दोष को समझ सकता है।
आत्म-जागरूकता: नियंत्रित मन से आत्म-जागरूकता बढ़ती है, जिससे व्यक्ति अपनी क्षमताओं और सीमाओं को पहचान सकता है और तदनुसार विवेकपूर्ण निर्णय ले सकता है।
4.तर्क और तार्किक सोच
तार्किक विश्लेषण: नियंत्रित मन तर्कसंगत और तार्किक सोच को बढ़ावा देता है। विवेकशील निर्णय लेने के लिए तर्कसंगत विश्लेषण और सोच आवश्यक है।
विचारशीलता: नियंत्रित मन से व्यक्ति सोच-समझ कर निर्णय लेता है, बजाय आवेग में आकर कार्य करने के।
5.दीर्घकालिक दृष्टिकोण
दीर्घकालिक प्रभाव: नियंत्रित मन व्यक्ति को निर्णय के दीर्घकालिक प्रभावों पर ध्यान देने में मदद करता है। इससे व्यक्ति तत्कालिक लाभ की बजाय दीर्घकालिक हित में निर्णय लेता है। रणनीतिक सोच: नियंत्रित मन से रणनीतिक और योजना बनाकर सोचने की क्षमता बढ़ती है, जो विवेकशीलता के लिए आवश्यक है।
6.नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य
नैतिक निर्णय: नियंत्रित मन से व्यक्ति नैतिक और धार्मिक मूल्यों के आधार पर निर्णय ले सकता है। यह सामाजिक और व्यक्तिगत दोनों ही स्तरों पर महत्वपूर्ण है।
आध्यात्मिक संतुलन: नियंत्रित मन आध्यात्मिक संतुलन प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति जीवन के गहरे और उच्चतर उद्देश्यों को समझ सकता है और तदनुसार निर्णय ले सकता है।
7.प्रतिकूल परिस्थितियों में संयम
धैर्य और संयम: नियंत्रित मन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी धैर्य और संयम बनाए रखने में मदद करता है, जिससे व्यक्ति विवेकपूर्ण तरीके से समस्याओं का समाधान कर सकता है।
सकारात्मक दृष्टिकोण: नियंत्रित मन सकारात्मक दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है, जिससे व्यक्ति चुनौतियों को अवसर के रूप में देखता है और नकारात्मकता से प्रभावित नहीं होता।
निष्कर्ष:
नियंत्रित मन व्यक्ति को विवेकशील बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह ध्यान, भावनात्मक स्थिरता, आत्म-जागरूकता, तार्किक सोच, दीर्घकालिक दृष्टिकोण, नैतिक मूल्य, और संयम जैसे गुणों को विकसित करता है। इन सभी गुणों का समन्वय विवेकशील निर्णय लेने में सहायता करता है। इसलिए, मन को नियंत्रित करने की प्रक्रिया (जैसे ध्यान, योग, प्राणायाम आदि) का नियमित अभ्यास विवेकशीलता को बढ़ाने के लिए आवश्यक है।
प्रश्न 9.‘शरीर और मस्तिष्क का श्वास से गहरा संबंध है‘ इस कथन पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर– परिचय
‘शरीर और मस्तिष्क का श्वास से गहरा संबंध है’ इस कथन का अर्थ यह है कि श्वास (सांस लेना और छोड़ना) हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है।
‘शरीर और मस्तिष्क का श्वास से गहरा संबंध:
1.ऑक्सीजन की आपूर्ति: श्वास के माध्यम से हमारे शरीर को ऑक्सीजन मिलती है, जो जीवन के लिए आवश्यक है। श्वास लेते समय फेफड़े ऑक्सीजन को खून में भेजते हैं, जो शरीर के सभी अंगों तक पहुंचती है। इससे मस्तिष्क भी प्रभावित होता है, क्योंकि मस्तिष्क को सही तरीके से काम करने के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन की जरूरत होती है।
2.तनाव और चिंता पर प्रभाव: गहरी और नियमित श्वास तकनीकें (जैसे प्राणायाम) मानसिक शांति और तनाव को कम करने में मदद करती हैं। धीमी और गहरी श्वास लेने से पैरासिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम (विश्राम और पाचन प्रणाली) सक्रिय हो जाता है, जिससे शरीर और मस्तिष्क को आराम मिलता है।
3.मूड और भावनाओं पर प्रभाव: श्वास लेने की तकनीकें हमारे मूड और भावनाओं को भी प्रभावित कर सकती हैं। सही श्वास लेने से शरीर में एंडोर्फिन (खुशी के हार्मोन) का स्तर बढ़ सकता है, जिससे व्यक्ति को खुशी और सुकून महसूस होता है।
4.ध्यान और एकाग्रता: श्वास पर ध्यान केंद्रित करने से मस्तिष्क की एकाग्रता और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता बढ़ती है। ध्यान (मेडिटेशन) के दौरान श्वास की गति पर ध्यान देने से मस्तिष्क शांत और सतर्क रहता है, जिससे सोचने की क्षमता और स्मरण शक्ति में सुधार होता है।
5.स्वास्थ्य संबंधी लाभ: नियमित और सही श्वास से रक्तचाप को नियंत्रित करने, दिल की धड़कन को स्थिर रखने, और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद मिलती है। यह सभी पहलू शरीर और मस्तिष्क दोनों के समग्र स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं।
6. प्रदूषण और श्वास: अगर हम प्रदूषित हवा में सांस लेते हैं तो यह फेफड़ों और मस्तिष्क दोनों को नुकसान पहुंचा सकता है। शुद्ध और स्वच्छ हवा में सांस लेना शरीर और मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए बेहतर होता है। निष्कर्ष: इस प्रकार, श्वास और हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के बीच गहरा संबंध है। सही श्वास तकनीकों को अपनाने से हम अपने जीवन को अधिक स्वस्थ, शांतिपूर्ण और खुशहाल बना सकते हैं।
प्रश्न 10. पाँच कर्मेन्द्रियों के नाम लिखते हुए उन पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए ।
उत्तर– परिचय
कर्मेन्द्रिय का अर्थ:
जिन इन्द्रियां के माध्यम से कोई भी जीव या प्राणी कोई भी कर्म करता है, उन इन्द्रियों को कर्मेन्द्रिय कहा जाता है।इन कर्मेन्द्रियों की संख्या कुल पांच हैं, इसलिए ये पंच कर्मेन्द्रिय कहलाते हैं। भारतीय दर्शन के अनुसार, पाँच कर्मेन्द्रियाँ (क्रियाएँ करने वाली इन्द्रियाँ) हैं,वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ – ये पाँच कर्मेंद्रियाँ होती हैं ।
वाक् यानि वाणी का विषय शब्द है और शब्द का उच्चारण करना वाणी का स्वभाव है ।
पाणि यानि हाथों का विषय वस्तु है अर्थात् वस्तु का ग्रहण और त्याग करना हाथों का स्वभाव है । पाद या पैरों का विषय मार्ग है, मार्ग पर चलना पैरों का स्वभाव है । पायु यानि गुदा का विषय मल है अतः मल का त्याग करना गुदा का स्वभाव है ।
उपस्थ (लिंग) का विषय आनंद है अर्थात् विषयों का आनंद ग्रहण करना लिंग का स्वभाव है । इस प्रकार ये पाँच कर्मेंद्रियाँ और उनके स्वभाव हैं।
इंद्रिय शरीर का वह अवयव है, जिसके द्वारा हम कोई कार्य या ज्ञान ग्रहण कर पाते हैं। पांच कर्मेंद्रियां- हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग
हाथ (पाणि):
कार्य: वस्तुएं पकड़ना, काम करना, और विभिन्न प्रकार की क्रियाएं करना।
महत्व: हाथ हमारे दैनिक जीवन में अति महत्वपूर्ण हैं। वे हमें लिखने, भोजन पकाने, चीजें उठाने और शारीरिक श्रम करने में मदद करते हैं। शारीरिक कार्यों और रचनात्मक गतिविधियों में भी हाथों की प्रमुख भूमिका होती है।
पैर (पाद):
कार्य: चलना, दौड़ना, खड़े रहना, और स्थानांतरण।
महत्व: पैर हमें चलने-फिरने और एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में सक्षम बनाते हैं। शारीरिक गतिविधियों, खेल-कूद, और यात्रा के लिए पैर अनिवार्य हैं।
मुँह (वाक्):
कार्य: बोलना, खाना, और सांस लेना।
महत्व: मुँह का उपयोग हम संवाद करने के लिए करते हैं। यह हमारी संचार प्रणाली का प्रमुख हिस्सा है। मुँह के माध्यम से हम भोजन ग्रहण करते हैं, जो हमारे शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है। इसके अलावा, साँस लेने की प्रक्रिया का भी महत्वपूर्ण हिस्सा है।
गुदा (पायु):
कार्य: मल त्याग (शरीर से अपशिष्ट पदार्थों को बाहर निकालना)।
महत्व: गुदा शरीर के अपशिष्ट निष्कासन प्रणाली का एक प्रमुख अंग है। यह हमारे पाचन तंत्र के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह शरीर से अपशिष्ट पदार्थों को बाहर निकालकर हमारे शरीर को स्वच्छ और स्वस्थ बनाए रखता है।
जननेन्द्रियाँ (उपस्थ):
कार्य: प्रजनन, यौन क्रियाएँ, और मूत्र त्याग।
महत्व: जननेन्द्रियाँ प्रजनन के लिए महत्वपूर्ण हैं। ये यौन स्वास्थ्य और संतति वृद्धि के लिए आवश्यक हैं। इसके अलावा, मूत्र त्याग के माध्यम से शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान होता है।
निष्कर्ष:
इन पाँच कर्मेन्द्रियों का हमारे दैनिक जीवन और शारीरिक क्रियाओं में महत्वपूर्ण स्थान है। वे न केवल हमारे शारीरिक कार्यों को संचालित करती हैं, बल्कि हमारे संपूर्ण स्वास्थ्य और भलाई में भी अहम भूमिका निभाती हैं।
प्रश्न 11.आत्मबोध में ध्यान के महत्त को रेखाङ्कित कीजिए ।
उत्तर – परिचय
आत्मबोध का शाब्दिक अर्थ होता है‘स्वयं को जानना‘। प्राचीन भारत की शिक्षा में इसका बहुत बड़ा प्रभाव था। ‘आत्मबोध‘, आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक लघु ग्रन्थ का नाम भी है। वेदान्त के मूल ग्रन्थों का अध्ययन आरम्भ करने की पूर्वतैयारी के रूप में शंकराचार्य ने कुछ ‘प्रकरण-ग्रन्थ’ भी लिखे हैं।
आत्मबोध में ध्यान के महत्त:
- आत्मबोध में ध्यान एक प्रकार की ध्यान प्रणाली है जिसमें ध्यानी का ध्यान आत्मा या आत्मानुभूति की ओर महसूस किया जाता है। यह ध्यान प्रणाली आत्मा की अंतरात्मा को जानने और समझने के लिए होती है। आत्मबोध में ध्यान करने का मुख्य उद्देश्य आत्मा के स्वरूप, आद्यात्मिक सत्यों, और आत्मा की अंतरात्मा का अनुभव करना होता है।
- आत्मबोध में ध्यान करने के लिए, ध्यानी को अपने मन को एकाग्र करने के लिए प्रयत्नशील रहना होता है। वे अपने अंतर्मन को शांत करते हैं और ध्यान के माध्यम से आत्मा के प्रकाश को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। ध्यान के माध्यम से, वे आत्मा के अंतर्मन की गहराई को समझते हैं और आत्मा के साथ संवाद का अनुभव करते हैं।
- आत्मबोध में ध्यान करने के लिए विभिन्न ध्यान प्रणालियों का उपयोग किया जा सकता है,जैसे कि ध्यान, प्राणायाम, मंत्र जप, योग आसन आदि। इन प्रणालियों के माध्यम से, ध्यानी अपने मन को नियंत्रित करते हैं और आत्मा के प्रकाश को प्राप्त करने के लिए अपने आत्मा की खोज में जुट जाते हैं।
आत्मबोध में ध्यान का महत्व अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण कारण हैं जो आत्मबोध में ध्यान के महत्त्व को रेखांकित करते हैं:
- चित्तशुद्धि (मानसिक शुद्धि): ध्यान करने से मन की चिंताएं कम होती हैं और मानसिक शांति मिलती है। यह मन को प्राणयाम, मन्त्र, या ध्यान के माध्यम से एकाग्र करने की अनुभूति देता है।
- स्वास्थ्य के लिए लाभकारी: ध्यान आत्मिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। यह स्ट्रेस को कम करता है, रक्तचालन को सुधारता है, और मस्तिष्क की क्षमता को बढ़ाता है।
- सामंजस्य और संगठन का विकास: ध्यान करने से व्यक्ति का मानसिक संतुलन बढ़ता है और उसकी सोचने की क्षमता में सुधार होता है। यह संगठित और उत्कृष्ट कार्य करने की क्षमता को भी बढ़ाता है।
- आत्म-ज्ञान और समझ की वृद्धि: ध्यान करने से व्यक्ति को अपने आत्मा के गहरे सत्य का अनुभव होता है। यह उसे अपनी स्वार्थी स्वभाव को समझने और अनुभव करने की क्षमता प्रदान करता है।
- उच्च स्तर की साधना और मोक्ष का मार्ग: ध्यान वास्तविकता का अनुभव करने में मदद करता है और व्यक्ति को मोक्ष की ओर प्रेरित करता है। यह उसे आत्मा के आद्यात्मिक असीम गुणों को अनुभव करने में मदद करता है।
निष्कर्ष:
इन सभी कारणों से, ध्यान आत्मबोध में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, जो व्यक्ति को आत्म-ज्ञान, समझ, और आत्मा के साथ संवाद की गहरी अनुभूति प्रदान करता है।
प्रश्न 12. प्रसन्नता एवं आनन्द का पञ्चकोशों से क्या सम्बन्ध है ? वर्णन कीजिए ।
उत्तर – परिचय
प्रसन्नता और आनंद मानव जीवन में महत्वपूर्ण भावना हैं, और इनका पञ्चकोशों के साथ गहरा संबंध होता है। पञ्चकोशों का अर्थ है मानव शरीर के पांच परत: अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, और आनंदमय कोष। व्यक्ति इन पाँच कोशों का ज्ञान प्राप्त करके, इनको स्वस्थ रखकर शारीरिक और मानसिक विकारों को नष्ट करके परम आनंद की प्राप्ति कर सकता है,जो सभी दर्शनों द्वारा बताया जाने वाला मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है इसे ही मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण आदि के नाम से कहा गया है ।यह कोष आनंद, शांति, और आनंद की अव्यक्त स्थिति को संदर्भित करता है। जब व्यक्ति अपने आनंदमय कोष के साथ संयोजन करता है, तो वह आत्मा का अभिन्न अनुभव करता है। इसी कारण से, आत्मा के साथ संवाद का आनंद भी यहाँ से ही उत्पन्न होता है।
प्रसन्नता एवं आनन्द का पञ्चकोशों से सम्बन्ध:
1.अन्नमय कोष (भोजन कोष): यह पहला कोष है जो शरीर को भोजन और पोषण प्रदान करता है। प्रसन्नता और आनंद का संबंध इस कोष के साथ उसके भोजन से होता है। एक स्वस्थ और पोषण से भरपूर आहार खाने से व्यक्ति का मन प्रसन्न और आनंदित होता है।
2.प्राणमय कोष (प्राण कोष): यह कोष प्राण और ऊर्जा के संचार के लिए होता है। अच्छे ऊर्जा स्तर से युक्त रहने से व्यक्ति का मन उत्तेजित और खुशहाल रहता है। योग और प्राणायाम के माध्यम से भी आनंद का अनुभव होता है।
3.मनोमय कोष (मन कोष): यह कोष मानसिक और भावनात्मक अनुभवों को संचित करता है। मन की शांति और स्थिरता प्रसन्नता और आनंद का मूल रूप से निर्माण करती है।
4.विज्ञानमय कोष (बुद्धि कोष): यह कोष बुद्धि और ज्ञान की स्थानीयकृत धारा है। यह आत्मा की सच्चाई को समझने में मदद करता है और आनंद का आनुभव करने की क्षमता को विकसित करता है।
5.आनंदमय कोष (आत्मा कोष): प्रसन्नता, आनंद, खुशी की प्राप्ति होना आनंदमय कोश की अनुभूति कराता है। मनुष्य जब प्रसन्न होता है, अच्छा कार्य करने पर सफलता पाता है तो इसके फलस्वरूप जो अद्भुत आनंद की अनुभूति होती है, वही आनंदमय कोश है इसे कारण शरीर कहा जाता है।
निष्कर्ष:
इस प्रकार, प्रसन्नता और आनंद पञ्चकोशों के साथ गहरा संबंध रखते हैं और स्वस्थ, संतुलित और आनंदमय जीवन के लिए उनका संतुलित विकास आवश्यक है।
प्रश्न 13. पञ्चकोशों के आधार पर मनुष्य जीवन में सन्तुष्टि को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है ? स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर – परिचय
मनुष्य जीवन में संतोष या सन्तुष्टि को पाने के लिए पञ्चकोशों के संतुलित विकास की आवश्यकता होती है। पञ्चकोशों के आधार पर मनुष्य जीवन में संतोष को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को अपने भोजन, ऊर्जा, मानसिक स्थिति, बुद्धि और आत्मा के संतुलित विकास पर ध्यान देना चाहिए।
यहाँ कुछ तत्त्व हैं जो मनुष्य जीवन में संतोष को प्राप्त करने में मदद करते हैं:
1.अन्नमय कोष (भोजन कोष): संतोष की शुरुआत भोजन से होती है। संतुलित और पोषण से भरपूर आहार खाने से शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार होता है और व्यक्ति को संतोष मिलता है।
2.प्राणमय कोष (प्राण कोष): उच्च स्तर का ऊर्जा और प्राण के साथ व्यक्ति को संतोष मिलता है। योग और प्राणायाम के माध्यम से प्राण शक्ति को संतुलित करके व्यक्ति को ऊर्जावान और संतुष्ट बनाया जा सकता है।
3.मनोमय कोष (मन कोष): मन की शांति और स्थिरता से ही संतोष मिलता है। मन की शुद्धि और ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने भावनात्मक संतुष्टि को प्राप्त कर सकता है।
4.विज्ञानमय कोष (बुद्धि कोष): बुद्धि के संदर्भ में संतोष का मतलब सही ज्ञान और समझ से होता है। सही ज्ञान प्राप्त करने और समझने से व्यक्ति अपने जीवन के निर्णयों में संतोष महसूस करता है।
5.आनंदमय कोष (आत्मा कोष): आनंदमय कोष से ही वास्तविक संतोष प्राप्त होता है। आत्मा की अंतरात्मा को अनुभव करने के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन में सच्ची संतोष और पूर्णता की प्राप्ति करता है।
निष्कर्ष:
इन पञ्चकोशों के संतुलित विकास के माध्यम से, व्यक्ति अपने जीवन में संतोष की अधिक संभावना पाता है और अपने आत्मा के साथ संवाद में अधिक समृद्ध होता है।
प्रश्न 14. सत्त्व, रजस, तमस गुणों पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर – परिचय
“सत्त्व”, “रजस”, और “तमस” गुण वेदांत और योग दर्शन के अनुसार मानव के मानसिक और आध्यात्मिक स्वरूप को समझने के लिए उपयोगी गुण हैं।
गुणों का शाब्दिक अर्थ है “गुण”। योग दर्शन और आयुर्वेद में, 3 गुण प्रकृति के आवश्यक गुण हैं जो सभी प्राणियों में मौजूद हैं। प्रत्येक गुण एक विशिष्ट विशेषता से जुड़ा हुआ है।
सत्त्व, रजस, तमस का अर्थ:
सत्व = पवित्रता और ज्ञान
राजस = क्रियाशीलता और इच्छा
तमस = अंधकार और विनाश ये शक्तियां हर समय हमारे भीतर मौजूद रहती हैं और कुछ स्थितियों और अनुभवों के प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं में प्रकट होती हैं। हालाँकि, गुणों में से एक हमेशा बाकी दो से ज़्यादा प्रभावशाली होता है।
गुण कहां पाए जाते हैं?: माया (दुनिया का भ्रम और उसके सभी विकर्षण) के हर हिस्से में गुण मौजूद हैं । उन्हें दिन, मौसम, भोजन, विचार और कार्यों में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, सुबह के समय सत्व होता है, दोपहर का समय राजसिक होता है और रात का समय तमस् होता है। इसलिए रजस और तम के बिना शुद्ध सत्व नहीं हो सकता, न ही तम और सत्व के बिना शुद्ध राजस हो सकता है। सत्व हमें सुख से आसक्ति में बांधता है , रजस हमें क्रियाशीलता से जोड़ता है और तम भ्रम है। जब तक हम तीनों गुणों में से किसी एक से प्रभावित होते हैं, तब तक हम माया के बंधन में रहते हैं।
सत्व, रजस और तमस् का स्पष्टीकरण सत्व(सात्विक):
- जो लोग सात्विक/सत्व गुण की अधिकता लिए होते हैं, ऐसे सात्विक गुण सत्त्वगुण वाले व्यक्ति बहुत ही दयालु, पवित्र, खुश, ज्ञानी, बुद्धिमान सकारात्मक वाले होते हैं।
- वे महान आस्तिक और निष्पक्ष होते है, तथा यह लोग हमेशा अनुचित, सही या गलत के बारे में बहुत विचारशील होते हैं।
- वे मानव और पशु दोनों के प्रति बराबर संवेदनशीलता रखते है।
- यह दैवीय गुण को दर्शाता है, की सात्विक गुण वाले लोगों को जीवन में उच्च उद्देश्य और ज्ञान के रहस्यवाद को समझने की भी भूख होती है।
सात्विक लोगो की पहचान: सात्विक लोग वे होते हैं, जो हमेशा संतुष्ट दिखते है। इस गुण वाले लोग उदार, मदद करने वाले, शुद्ध आत्मा के जानकार होते हैं। वे सकारात्मक कर्मों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ये ज़िंदगी के भागदौड में भरोसा नहीं रखते और जो है बस उसी चीज में तसल्ली पा लेते है।
राजस(राजसीक):
- आज की दुनिया में ये वही लोग होते हैं जिन्हें हम अचीवर्स कहते हैं, तथा ये जुनूनी और आत्म प्रेमी लोग होते हैं।
- यह लोग उस स्थिति में आक्रमक, अधीर और आवेगी हो सकते हैं, यदि उनके लक्ष्य पूरे नहीं होते हैं।
- इनको अपने लक्ष्य से बहुत प्यार होता है, तथा लक्ष्य ना मिलने की स्थिति में यह लोग आवेगी हो जाते हैं।
- रजस गुण वाले लोगों को इस युग का कर्ता कहा जाता है, तथा जब जोश के साथ प्रतिस्पर्धा करने की बात आती है, तो ये सर्वश्रेष्ठ होते हैं और वे दूसरों को प्रेरित कर सकते हैं।
राजसीक लोगो की पहचान:
- राजसिक लोग आत्म विकास पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित करते हैं।
- इस गुण वाले व्यक्ति जो कुछ भी करना चाहते हैं,
- उसे हासिल करने के लिए तैयार रहते हैं।
- इनका यह स्वभाव इन्हें कभी-कभी आत्म-केंद्रित भी बना देता हैं।
- वे सिद्धि की भावना से प्रेरित होते हैं, तथा यह लोग अपने हर काम को व्यवस्थित तरीके से करने में यकीन रखते हैं।
तमस:(तामसिक):
- यह लोग वही विनाशकारी लोग होते हैं, जो जाने अनजाने में हमेशा गलत रास्ता चुनते हैं।
- ऐसे लोग सही रास्ते पर चल सकते हैं, पर चलना नहीं चाहते।
- तामसिक गुण वाले लोगों के लिए सत्य और अधिक ज्ञान, एलर्जी के समान होता है।
तामसिक लोगों की पहचान:
- तामसिक लोगों के लिए धर्म, कर्म, मोक्ष और अर्थ के सिद्धांत अर्थहीन हैं, तथा इन लोगों को इन सब से कोई मतलब नहीं होता ।
- यह लोग हमेशा हर काम के लिए अपनी उल्टी बुद्धि का प्रयोग करते हैं।
- यह लोग सबसे निष्क्रिय, विनाशकारी और अम्लीय लोग होते हैं, जिनको कोई भी चीज सीधी समझ नहीं आती।
प्रभाव: तीन गुण हमें गहराई से प्रभावित करते हैं। वे हमारे विचारों और कार्यों से लेकर हमारी आदतों और गतिविधियों तक , जो हमें वह बनाती हैं जो हम हैं, हर चीज़ को प्रभावित करते हैं। इसका मतलब यह है कि आपके भीतर जो भी गुण ज़्यादा मौजूद होगा , वह दुनिया को देखने के आपके नज़रिए को प्रभावित करेगा। उदाहरण के लिए, एक मुख्य रूप से तामसिक व्यक्ति हर चीज़ को नकारात्मक और विनाशकारी रूप में देखेगा। दूसरी ओर, एक व्यक्ति जो ज़्यादा सात्विक है, उसका नज़रिया सकारात्मक होगा और वह हर चीज़ में खुशी और आनंद पाएगा।
तीन गुणों को संतुलित करने वाले खाद्य पदार्थ
सात्विक, राजसिक और तामसिक भोजन आपने कहावत सुनी होगी, “आप वही हैं जो आप खाते हैं।” इसका मतलब है कि हम जो खाते हैं, पचाते हैं और अवशोषित करते हैं उसकी गुणवत्ता का सीधा असर इस बात पर पड़ता है कि हम कैसे दिखते हैं, महसूस करते हैं और सोचते हैं। यह गुणों पर भी लागू होता है। आयुर्वेदिक आहार हमें अत्यधिक पौष्टिक सात्विक भोजन, मध्यम राजसिक भोजन और कोई तामसिक भोजन नहीं खाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं । ऐसा करके, हम शारीरिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप से अधिक स्वस्थ और संतुलित जीवन जी सकते हैं।
यहां उन खाद्य पदार्थों की सूची दी गई है जो तीनों गुणों को प्रभावित करते हैं:
सात्विक भोजन: सत्व बढ़ाने के लिए ताजे, संपूर्ण और पौष्टिक खाद्य पदार्थ खाएं जैसे:
- फलियां
- साबुत अनाज
- धूप में उगाई जाने वाली सब्जियाँ और फल
- राजसिक खाद्य पदार्थ
रजोगुणभोजन:
रजोगुण को कम करने के लिए, उत्तेजक प्रकृति वाले खाद्य पदार्थों का सेवन सीमित करें। इसमें शामिल हैं:
- चटपटा खाना
- मिर्च और शिमला मिर्च
- प्याज जैसी सब्जियाँ
- कैफीन जैसे उत्तेजक पदार्थ
- दालें और दलहन
तामसिक भोजन:
सुस्ती को दर्शाने वाले खाद्य पदार्थ तामसिक होते हैं। तामसिकता को कम करने के लिए निम्नलिखित खाद्य पदार्थों से बचें:
- फ़ास्ट फ़ूड
- सफेद ब्रेड जैसे परिष्कृत खाद्य पदार्थ
- जमे हुए खाद्य पदार्थ या बचा हुआ भोजन
- लाल मांस जैसे भेड़ का बच्चा और गाय का मांस
- फफूंदयुक्त चीज
निष्कर्ष:
इन तीन गुणों का मानव मन के विभिन्न पहलुओं को प्रकट करने में भूमिका होता है। योग और वेदांत दर्शन में, व्यक्ति का आध्यात्मिक और मानसिक स्थिति इन तीन गुणों के संतुलन पर निर्भर करता है।
प्रश्न 15. किन्हीं दो पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
(i) अन्नमयकोश
(ii) विज्ञानमयकोश
(iii) आनंदमय कोष
(iv) प्राणमयकोष
(v) पञ्च महाभूत(पंचमहाभूत)
(vi)मनोमय कोश
(vii) चारुचर्या
उत्तर- (i) अन्नमयकोश
परिचय –
अन्नमय कोष हमारे शरीर का पहला कोष है, जो अन्न (भोजन) से संबंधित है। इस कोष में भोजन से प्राप्त की गई पोषक तत्वों का संचय होता है, जो हमारे शरीर के विकास और कार्यों के लिए आवश्यक होते हैं। यह कोष हमारे भौतिक शरीर का भाग होता है जो उपाहार (भोजन) के माध्यम से संबंधित है। अन्नमयकोश में अन्न के महत्त्व को बताते हुए तैत्तिरीय उपनिषद् में ही कहा गया है – अन्न से ही प्रजा उत्पन्न होती है जो कुछ भी पृथ्वी पर है वह सब अन्न से ही उत्पन्न है, अन्न से ही वह जीवित है, अन्न में ही लीन हो जाता है । अन्न ही ब्रह्म है, अन्न ही प्राणियों में बड़ा है इसीलिए सब प्रकार की औषधि अन्न है । अन्न से ही प्राणी जन्म लेते हैं। जन्म लेकर अन्न से ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं । अन्न प्राणियों द्वारा खाया जाता है और वह भी उन्हीं को खाता है, अतः अन्न कहा जाता है ।
अन्नमय कोश :- (शारीरिक विकास से संबंधित) मनुष्य का शरीर अनमोल है। हमारी पहली पहचान हमारे शरीर से होती है शरीर की पहली आवश्यकता है – भोजन । भोजन की सही मात्रा एक स्वस्थ शरीर के निर्माण में आवश्यक है । उदाहरण के लिए – हाथ, पैर, आंख, हड्डियां इत्यादि भली प्रकार कार्य करने के लिए जो ऊर्जा चाहती हैं; वह भोजन से मिलती है। अन्नमय कोश में उचित आहार अर्थात् सही समय पर खाना, सही मात्रा में खाना, सही अर्थात् सात्विक भोजन खाना; अन्नमय कोश को ठीक रखता है। उचित व्यायाम, गतिविधियां व्यक्ति को हृष्ट पुष्ट, स्फूर्तिवान बनती हैं। प्राचीन कहावत है ” जैसा अन्न वैसा मन” ।
अन्नमय कोश में ध्यान देने का परिणाम :-
- बच्चा खेलकूद में सक्रिय तथा शरीर से चुस्त-दुरुस्त होगा ।
- बच्चे को सुपोषित आहार उसकी सुपोषित विचार का जन्मदाता बनेगा ।
- बालक का स्वस्थ शरीर उसको जीवन की चुनौतियों तथा रोगों से लड़ने की शक्ति प्रदान करेगा।
अन्नमय कोष की विशेषताएँ:
- अहार (भोजन): अन्नमय कोष का मुख्य कार्य भोजन को संचित करना है। यह कोष भोजन को पचान कर उसकी पोषण गुणवत्ता को बढ़ाने में सहायक होता है।
- भौतिक शरीर: अन्नमय कोष हमारे भौतिक शरीर का हिस्सा होता है, जो हमें भौतिक संवाद में लाता है।
- पोषण: इस कोष के माध्यम से प्राप्त की गई ऊर्जा और पोषक तत्व हमारे शरीर की विभिन्न क्रियाओं को संचालित करने में मदद करते हैं।
- संचय: अन्नमय कोष हमारे शरीर में भोजन से प्राप्त की गई पोषक तत्वों को संचित करता है, जो शरीर के विकास और संचालन के लिए आवश्यक होते हैं।
निष्कर्ष:
अन्नमय कोष का संतुलित विकास हमें स्वस्थ और ऊर्जावान रखने में मदद करता है। यह हमें भौतिक और मानसिक संतुष्टि में सहायक होता है और हमारे शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक विकास में सहायक होता है।
(ii) विज्ञानमयकोश
परिचय
विज्ञानमय कोष आत्मा को ढकने वाले पांच कोषों में से एक है। विज्ञानमय कोष का शाब्दिक अर्थ है एक खोल जो ज्ञान या बुद्धि से बना है। यह आत्मा का चौथा आवरण है।इसके अंतर्गत पाँच ज्ञानेंद्रियाँ – कान, त्वचा, आंखें, जीभ और नाकआते हैं । ज्ञानेंद्रिय ही स्वस्थ मनुष्य के जीवन का आधार है, इनको स्वस्थ रखकर मनुष्य क्रियाशीलता के द्वारा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति भीकर सकता है। इस प्रकार प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय तीनों सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत कहे गए हैं । लौकिक और वैदिक कर्मों का विधान, सत्य का निश्चय, शंकाओं का समाधान आदि विज्ञानमय कोश के ही अंतर्गत होता है । बुद्धि इसका प्रधान तत्त्व है और आनन्दमय कोश के ऊपर जो बुद्धि और अहंकार का आवरण है, वही विज्ञानमय कोश कहलाता है ।
विज्ञानमय कोश का विकास विज्ञानमय कोश के विकास के लिए आलस्य का त्याग अनिवार्य है । सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए चूँकि यह बुद्धि को प्रभावित करता है । मनोमय कोश के समान बुद्धि को स्वस्थ रखने हेतु प्राणायाम भी आवश्यक है । यहाँ श्रद्धा का भी महत्त्व है, परोपकार के द्वारा तथा ईर्ष्या- द्वेष आदि से दूर रहकर विज्ञानमय कोश सशक्त किया जाता है ।गायत्री मंत्र का जप, यज्ञ आदि विज्ञानमय कोश को सशक्त करते हैं ।
भगवद्गीता में कार्यों सहित बुद्धि के तीन भेद बताए गए हैं-
सात्विक बुद्धि- जिन वस्तुओं से बुद्धि निर्मल होती है उन्हें सात्विक बुद्धि कहते हैं-आहार, व्यवहार, विचार आदि पवित्र हों तो सत्व गुण की अभिवृद्धि होती है जिससे बुद्धि निर्मल होती है। अत्यंत निर्मल बुद्धि में पड़े प्रतिबिंब से पुरुष को अपने असली केवल, निरंजन रूप का ज्ञान हो जाता है और वह मुक्त हो जाता है। सात्विक बुद्धि भगवद्गीता में एक महत्वपूर्ण अवस्था है और यह बुद्धि का सबसे उच्च स्तर है। सात्विक बुद्धि व्यक्ति को सत्य का ज्ञान और अन्तरात्मा के उद्दीपन के माध्यम से आत्मज्ञान की प्राप्ति में सहायक होती है। इस बुद्धि के अंतर्गत व्यक्ति कर्मों को निष्काम भाव से करता है, और उसे फलों की आकांक्षा नहीं होती। व्यक्ति अपने कर्मों को देश-काल-विषय के अनुसार करता है, और उसे उसके कर्मों का यथार्थ ज्ञान होता है। सात्विक बुद्धि व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार, अनुभव, और अनन्त शांति का अनुभव कराती है। इस बुद्धि के अंतर्गत व्यक्ति भगवान के साथ आत्मीय रिश्ता बनाता है और जीवन को सार्थक और उद्दीप्त बनाने के लिए आत्मा की ओर प्रेरित होता है
राजसी बुद्धि – राजसी बुद्धि भगवद्गीता में उल्लेखित है और यह बुद्धि का एक प्रकार है जो मनुष्य को अधर्म और अज्ञान में रखता है। इस बुद्धि में व्यक्ति कार्यों को करते समय अपने स्वार्थ को ही महत्व देता है, और उसे फलों की आकांक्षा रहती है। इसके अंतर्गत अहंकार, अभिमान, और भय की भावना होती है। राजसी बुद्धि व्यक्ति को अध्यात्मिक विकास में रुकावट पहुंचाती है और उसे संसारिक बाधाओं में फंसा देती है। इसलिए, भगवद्गीता में यह सलाह दी जाती है कि व्यक्ति को राजसी बुद्धि से परे करके सात्त्विक बुद्धि की प्राप्ति करनी चाहिए, जो कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्तियोग के माध्यम से होती है।
तामसी बुद्धि– तामसी बुद्धि भगवद्गीता में उल्लेखित है और यह बुद्धि का तीसरा प्रकार है। यह बुद्धि अत्यंत अज्ञान, मूर्खता, और अधर्म के क्षेत्र में काम करती है। तामसी बुद्धि व्यक्ति को अन्धकार में ले जाती है, जिससे उसके कार्य अधर्मिक और हानिकारक होते हैं। इस बुद्धि के अंतर्गत व्यक्ति आलस्य, अनवश्यक अध्यायन, और निरन्तर अनादर की भावना को पालता है। तामसी बुद्धि व्यक्ति को संसारिक और आध्यात्मिक विकास में रुकावट डालती है और उसे आध्यात्मिकता और सत्य की प्राप्ति से वंचित रखती है। भगवद्गीता में इसे जागरूकता की आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत किया गया है, ताकि व्यक्ति सात्त्विक बुद्धि का अनुसरण कर सके और अपने जीवन को समृद्ध, उदात्त, और धार्मिक बना सके।
निष्कर्ष
विज्ञानमय कोश की स्वस्थता एवं विकास के लिए मनुष्य को प्रयत्नशील रहना चाहिए, इसी में उसका सांसारिक एवं व्यक्तिगत कल्याण निहित है । व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में भी यह अत्यन्त सहयोगी है।
(iii) आनंदमय कोष
परिचय –
आनंदमय कोष :-आनंदमय कोष योग दर्शन में शरीर की पाँच परतों या आवरणों में से पाँचवें को दिया गया नाम है, जिन्हें सामूहिक रूप से पंच कोष कहा जाता है । संस्कृत में, आनंद का अर्थ है “आनंद” और कोष का अर्थ है “आवरण”। आनंदमय कोष आनंद शरीर या आनंद आवरण है। इसे शरीर की पाँच परतों में सबसे आध्यात्मिक या सूक्ष्म कहा जाता है क्योंकि यह सबसे भीतरी परत है।
आनंदमय कोश :-
- आनंदमय कोष भारतीय दर्शन में एक शरीरिक और मानसिक कोष का उल्लेख है। इसे पंचकोष विवेचन के अंतर्गत गणेशपुराण और तैत्तिरीय उपनिषद् में उल्लेख किया गया है। पंचकोष विवेचन में प्रत्येक कोष का वर्णन शारीरिक और मानसिक स्तर पर किया गया है, जिसमें आनंदमय कोष अंतिम कोष है।
- आनंदमय कोष को सभी प्राणियों के साथ बिना शर्त प्यार, एकता और पूर्ण एकता के लिए जिम्मेदार माना जाता है। यह अपने शुद्धतम और सबसे निरपेक्ष रूप में शांति, प्रेम और आनंद के लिए भी जिम्मेदार है, इसे किसी भी भावनात्मक या शारीरिक अनुभव से परे माना जाता है।
- प्रसन्नता, आनंद, खुशी की प्राप्ति होना आनंदमय कोश की अनुभूति कराता है। मनुष्य जब प्रसन्न होता है, अच्छा कार्य करने पर सफलता पाता है तो इसके फलस्वरूप जो अद्भुत आनंद की अनुभूति होती है, वही आनंदमय कोश है इसे कारण शरीर कहा जाता है।
- व्यक्ति इन पाँच कोशों का ज्ञान प्राप्त करके,इनको स्वस्थ रखकर शारीरिक और मानसिक विकारों को नष्ट करके परम आनंद की प्राप्ति कर सकता है, जो सभी दर्शनों द्वाराबताया जाने वाला मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है इसे ही मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण आदि के नाम से कहा गया है ।
- आनंदमय कोष को आनंद की पूर्ति और अंतिम साधन के रूप में वर्णित किया जाता है। यह कोष सबसे अधिक परिपूर्ण और अधिक सुखी होता है। इसे आत्मा की स्थिति के रूप में भी वर्णित किया जाता है, जो अज्ञात, निर्विकल्प, और अद्वितीय है। आनंदमय कोष का अनुभव वास्तविक आनंद के रूप में होता है, जो इंद्रियों के विषयों की परिमाणिक सुख से परे होता है।
- इसे जीवात्मा का सच्चा स्वरूप कहा जाता है,जो सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी होता है। यह कोष भोगों के भोग को पाने के लिए सबसे आत्मीय होता है, और इसका अनुभव ध्यान और समाधि के माध्यम से होता है।
निष्कर्ष
आनंदमय कोष को आत्मा के साथ संबंधित भी माना जाता है, जिसे अज्ञातऔर अद्वितीय कहा जाता है। इसका अनुभव ध्यान और समाधि के माध्यम से होता है। यह अंतिम पंचकोष के अनुभव से अधिक अद्वितीय और अलौकिक होता है, जो सच्चे स्वभाव का अनुभव कराता है।
(iv) प्राणमयकोष
परिचय
प्राणमय कोश :- शक्ति और ऊर्जा का केंद्र स्वरूप को प्राणमय कोश कहा जाता है । यह सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत आता है। शरीर द्वारा सेवन करने योग्य भोज्य पदार्थों को ऊर्जा और शक्ति में बदलकर यह शरीर का पालन व पोषण करता है। प्राणमय कोश में ऊर्जा का श्वसन वायु है । श्वसन वायु जो मानव जीवन के जीवित होने का प्रमाण है। प्राणमय कोश में पांच प्रकार के प्राण हैं। इसकी सही प्रणाली ना होना, अन्नमय कोश को प्रभावित करती है। श्वास के आवागमन के द्वारा ये पाँच प्रकार के प्राण पांच प्रमुख प्रकार की गतिविधियों को, जो शरीर के लिए आवश्यक हैको नियमित, संयमित करते हैं तो मनुष्य काजीवन अथवा कार्य के प्रति उत्साह, श्रेष्ठता, कार्यसमायोजन, परिस्थितियों का नेतृत्व करने की क्षमता, बोलने की आवृत्ति व तरीका आदि प्राणमय कोश के सही प्रकार कार्य करने के संकेत हैं।
पाँच प्रकार के प्राण :-
1) प्राण – हमारी पाँच ज्ञानेंद्रियां आँख, नाक, कान, जीभ व त्वचा जो सटीक समय पर सही प्रतिक्रिया करने के लिए हमें सूचित करती है ।
2) अपान – शरीर का उत्सर्जन तंत्र विषैले पदार्थों को मल, मूत्र, पसीने आदि के रूप में शरीर से उत्सर्जित करता है।
3) समान – इसमें भोजन की पाचन प्रक्रिया संपादित होती है जिससे सभी आवश्यक अंगों को शक्ति मिलती है, कार्य करने हेतु ।
4) व्यान- भोजन के पोषक तत्वों को रक्त के माध्यम से शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुंचाया जाता है। शरीर में रक्त में उपस्थित वायु के कारण संचरित होता है।
5) उदान – इससे मनुष्य के अपने विचारों को और अधिक गहन चिंतनशील, उत्कृष्ट करने व नए दर्शन के निर्माण की क्षमता प्रदर्शित करना हैं।
प्राणमय कोश में ध्यान देने के कारण:– मनुष्य का अपनी श्वासों पर ध्यान आवश्यक है। प्राणमय कोश के सही प्रकार कार्य करने से मानव शरीर प्रणाली भली प्रकार कार्य कर पाती है। पाँच प्राणों द्वारा पाँच प्रमुख प्रक्रियाओं का संपादन मानव शरीर के लिए जरूरी है अथवा मानव जीवन संकट में हैं।
प्राणमय कोश में ध्यान देने के परिणाम :-
- मनुष्य के प्राण उसकी शारीरिक गतिविधियों को संतुलित तथा संचालित करते हैं।
- जीवन ऊर्जा संतुलन से व्यवस्थित व सम्यक व्यक्तित्व का निर्माण होगा।
- मनुष्य के प्राण उसके शरीर व मन को प्रभावित करते हैं। सही प्राण खुश मन का आधार बनेंगे।
निष्कर्ष
प्राणमयकोष का अनुभव शारीरिक ऊर्जा, प्राण, और ऊर्जा के संचार के माध्यम से होता है। यह आहार, प्राणायाम, और अन्य शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से संतुष्ट होता है।संगीत, तांत्रिक, और योग दर्शन में, प्राणमयकोष को प्राणशक्ति और ऊर्जा का संचार करने वाले अंग के रूप में समझा जाता है, जो शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का संचालन करते हैं।
(v) पञ्च महाभूत(पंचमहाभूत)
परिचय –
आकाश (Space) , वायु (Force), अग्नि (Energy), जल (State of matter) तथा पृथ्वी (Matter) – ये पंचमहाभूत माने गए हैं जिनसे सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है। इन्ही पांच तत्वों को सामूहिक रूप से पंचतत्व/पञ्च महाभूत (पंचमहाभूत) कहा जाता है। लेकिन इनसे बने पदार्थ जड़ (यानि निर्जीव) होते हैं, सजीव बनने के लिए इनको आत्मा चाहिए। पंचमहाभूत भारतीय दर्शन और ज्ञान परंपरा में प्रमुख तत्व हैं, जो समस्त सृष्टि के आधार के रूप में माने जाते हैं। इन पाँच महाभूतों का उल्लेख वेदांत, सांख्य दर्शन, योग, और आयुर्वेद आदि विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक शास्त्रों में किया गया है।
पंचमहाभूत के नाम इस प्रकार हैं:
1.पृथ्वी (भूमि): पृथ्वी तत्व, पंच तत्वों में सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। यह ठोस, स्थूल, कठोर और सघन है। पृथ्वी तत्व रूप, आकार, संरचना और शक्ति देता है। उदाहरण के लिए दांत, नाखून, हड्डियाँ और मांसपेशियाँ। नाक पृथ्वी तत्व से संबंधित इंद्रिय है। पृथ्वी तत्व की तन्मात्रा गंध या गंध है। पृथ्वी महाभूत धारा के रूप में मानी जाती है और स्थूल शरीर का आधार बताया जाता है।
2.जल (आप): जल महाभूत सृष्टि की ऊर्जा और शुद्धता का प्रतीक है और जलीय प्राणियों के लिए अत्यंत आवश्यक है।पंचभूतों में से जल तत्व का गुण द्रवता या तरलता है। पानी बांधने का महत्वपूर्ण गुण प्रदान करता है।
उदाहरण:- के लिए जब हम मिट्टी में पानी मिलाते हैं, तभी हम मिट्टी को आसानी से अपनी इच्छानुसार आकार दे सकते हैं जैसे मिट्टी का घड़ा या गेंद आदि। इस प्रकार, यह महत्वपूर्ण तत्व प्रकृति में रचनात्मक है और आसंजन, शीतलता, बंधन और तरलता जैसे गुण प्रदर्शित करता है। जल तत्व की तन्मात्रा स्वाद या रस है।
3.अग्नि (तेज): अग्नि से जल की उत्पत्ति मानी गई है। हमारे शरीर में अग्नि ऊर्जा के रूप में विद्यमान है। इस अग्नि के कारण ही हमारा शरीर चलायमान है। अग्नि तत्व ऊर्जा, ऊष्मा, शक्ति और ताप का प्रतीक है। हमारे शरीर में जितनी भी गर्माहट है वो सब अग्नि तत्व ही है । यही अग्नि तत्व भोजन को पचाकर शरीर को निरोगी रखता है। ये तत्व ही शरीर को बल और शक्ति वरदान करता है।
4.वायु (वायु): वायु महाभूत सृष्टि के श्वास का प्रतीक है और सभी प्राणियों के जीवन के लिए आवश्यक है।यह गति या निरंतर गति की भावना से संबंधित है। वायु तत्व के गुणों में संवेदनशीलता, गति, शीतलता और सूक्ष्म उपस्थिति शामिल हैं। त्वचा वायु तत्व से संबंधित संवेदी अंग है। वायु तत्व की तन्मात्रा स्पर्श या स्पर्श है। वायु के कारण ही अग्नि की उत्पत्ति मानी गई है। हमारे शरीर में वायु प्राणवायु में विद्यमान है। शरीर से वायु के बाहर निकल जाने से प्राण भी निकल जाते हैं। जितना भी प्राण है वो सब वायु तत्व है। धरती भी श्वांस ले रही है। वायु ही हमारी आयु भी है। जो हम सांस के रूप में हवा (ऑक्सीजन) लेते हैं, जिससे हमारा होना निश्चित है, जिससे हमारा जीवन है। वही वायु तत्व है।
5.आकाश (अंतरिक्ष): आकाश एक ऐसा तत्व है जिसमें पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु विद्यमान है। यह आकाश ही हमारे भीतर आत्मा का वाहक है। इस तत्व को महसूस करने के लिए साधना की जरूरत होती है। ये आकाश तत्व अभौतिक रूप में मन है। जैसे आकाश अनन्त है वैसे ही मन की भी कोई सीमा नहीं है। जैसे आकाश में कभी बादल, कभी धूल और कभी बिल्कुल साफ होता है वैसे ही मन में भी कभी सुख, कभी दुख और कभी तो बिल्कुल शांत रहता है। ये मन आकाश तत्व रूप है जो शरीर मेविद्यमान है।
निष्कर्ष: ये पंचमहाभूत प्रत्येक सृष्टि के रचनात्मक तत्व हैं और सभी जीवन के लिए आवश्यक हैं। वेदांत में, ये महाभूत सृष्टि के ब्रह्म के विकार होते हैं जिनसे सृष्टि उत्पन्न होती है।जो मनुष्य इन पंच तत्वों के महत्व को समझकर इनका सम्मान और इनको पोषित करता है वह निरोगी रहकर दीर्घजीवी होता है।
(vi) मनोमय कोश
परिचय मनोमय कोश:- मनोमय कोश पंचकोशीय व्यवस्था का एक अंग है, जो आत्मा के शरीर को प्रतिनिधित करता है। यह शारीरिक और मानसिक स्तरों की व्यवस्था को व्यक्त करता है और आत्मा के संचलन और विकास में भूमिका निभाता है। मन, प्राणमय कोश को नियंत्रित करता है। मनुष्य का मन किसी भी दुनिया, वस्तु, कल्पना आदि में पहुंचाने की क्षमता रखता है । यदि मनसंयमित तथा शुद्ध विचारों द्वारा पोषित ना हो, तो मनुष्य को दुर्गति के मार्ग में ले जाने तक का सामर्थ्य रखता है। मनुष्य का किसी व्यक्ति, विचार या वस्तु इत्यादि से लगाव अथवा अलगाव उसके मन पर निर्भर करता है, उसकी भावनाओं पर निर्भर करता है। शरीर में स्थित कर्मेंद्रियाँ(हस्त पाद, वाक्, पायु, उपस्थ) जो शरीर को नियंत्रित कर इसे संयमित दिनचर्या हेतु प्रेरित करती हैं । अनियंत्रित मनोमय कोश व्यक्ति के दुःखों का कारण बनता है, क्योंकि मन की शक्तियाँ अनंत हैं। उसकी चंचलता व्यक्ति को व्याकुल कर देती है । ध्यान, अभ्यास व सात्विक भोजन द्वारा इसे संयमित व नियंत्रित किया जाता है। यह भी सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत आता है।
मनोमय कोश पर ध्यान देने के कारण :- मन यदि अशांत होता है तो मानव नकारात्मकता को आकर्षित करता है, ध्यान पूर्वक किसी कार्य को करने के लिए मनोमय कोश का संतुलित होनाआवश्यक है। मनुष्य नियमित योग, ध्यान, अच्छे साहित्य, निबंध आदि पढ़ करके अपने मन को अच्छे विचारों पर केंद्रित करने में सक्षम हो जाता है। हमारा मन हमारे अनुभवों तथा स्मृतियों का भंडार कक्ष है। यदि मन की उचित देखभाल तथा पोषण रूपी विचार न दिया जाए, तो हमारी बुरी स्मृति हमारे वर्तमान को प्रभावित नहीं कर पाती । जीवन की प्रत्येक चुनौती में एक संतुलन मन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
मनोमय कोश पर ध्यान देने के परिणाम :-
- मनोमय कोश संतुलित होने से मानव अपने भावनाओं को नियंत्रित करने में सक्षम हो पाएगा ।
- दृढ़ इच्छा तथा सकारात्मक विचार बालक को जीवन की नई दिशा व नया दृष्टिकोण प्रदान करेंगे।
- बालक का मन ही किसी भी व्यक्ति, वस्तु, संस्कृति से, कला, साहित्य आदि से संलग्नता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाताहै।
निष्कर्ष:
मनोमय कोश भारतीय दर्शनिकों द्वारा प्रस्तुत एक अद्वितीय विचार है, जो मन के विभिन्न पहलुओं और अनुभूतियों को समझने का प्रयास करता है। मनोमय कोश को विभिन्न प्रकार की साधनाओं, ध्यान, धारणा और समाधि के माध्यम से समझा जा सकता है। इसका अध्ययन और अनुभव व्यक्तिगत विकास और आध्यात्मिकता के प्रति जागरूकता को बढ़ाता है।
(vii) चारुचर्या
परिचय
चारुचर्या का अर्थ अर्थ:- चारुचर्या का अर्थ अर्थ है सामाजिक शिष्ट व्यवहार । मनुष्य सामाजिक प्राणी है, मनुष्यके जीवन पर सामाजिक वातावरण का प्रभाव पड़ता है, उसके कुछ सामाजिक दायित्व भी होते हैं जिनका निर्वहन वह तभी कर सकता है जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होगा। प्राचीन ज्ञान परम्परा में न केवल शारीरिक स्वास्थ्य अपितु मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देते हुए सदाचार नीति आदि का उल्लेख वैदिक काल से किया जाता रहा है जो मनुष्य के समाज मूलक स्वास्थ्य की उन्नति के लिए ही है ।
महत्व:
- चारुचर्या के अनुसार,व्यक्ति को नेक आचरण और श्रेयस्कर विचारधारा का पालन करना चाहिए। इसका मतलब है कि व्यक्ति को सत्य, धर्म, और नैतिकता के मानकों का पालन करते हुए जीना चाहिए, और अपने व्यवहार में सदाचार, सम्मान, और नेकी का परिचय करना चाहिए।
- “चारुचर्या” का महत्व विशेष रूप से समाज और व्यक्ति के विकास में है। यह नैतिकता, धर्म, और सामाजिक संस्कृति के मानकों को बढ़ावा देता है। चारुचर्या का पालन करने से कई महत्वपूर्ण लाभ होते हैं ।
- चारुचर्या के सिद्धांत को धर्मग्रंथों,जैसे कि गीता और मनुस्मृति, में व्यापक रूप से उजागर किया गया है। यह सामाजिक समृद्धि और व्यक्तिगत विकास के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। चारुचर्या का पालन करने से समाज में शांति, सौभाग्य, और सहयोग का वातावरण बनता है।
- महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योगपाँच प्रकार के यम और पाँच प्रकार के नियम व्यक्ति और समाज दोनों को प्रभावित करते हैं।
पाँच यम हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
- अहिंसाका अर्थ है-मन, वचन और कर्म से कुछ भी ऐसा न सोचना, न बोलना और न ही करना, जिससे किसी प्राणी को कष्ट का सामना करना पड़े ।
- सत्य का अर्थ है – जैसा देखा, जैसा सुना या जैसा अनुभव किया हो वैसा ही कह देना । सत्य सदैव छल-कपट से रहित होना चाहिए।
- अस्तेय का अर्थ है- अवैध रीति से किसी का धन, पद, वस्तु या अधिकार का अपहरण न करना।
- ब्रह्मचर्य का अर्थ है- संयमित जीवन व्यतीत करना ।
- अपरिग्रह का अर्थ है-सात्विक जीवन बिताना, आवश्यकता से अधिक धन या सामग्री का संचय ना करना । इस प्रकार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये सामाजिक धर्म हैं अर्थात् इनसे ज्ञान होता है कि मनुष्य को दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए।
पाँच नियम हैं- जो हैं “शौच” (स्वच्छता/पवित्रता), “संतोष” (संतोष), “तप” (तपस्या/अनुशासन), “स्वाध्याय” (स्व-अध्ययन), और “ईश्वर-प्रणिधान” (समर्पण/ एक उच्च शक्ति के प्रति समर्पण)। “नियम” की अवधारणा में, योग दर्शन के संदर्भ में कुछ नैतिक पालन हैं।ये पालन, या नियम, व्यक्तिगत व्यवहार और नैतिक आचरण के लिए दिशानिर्देश हैं।
- “शौच” – शरीर और मन की पवित्रता।
- “संतोष” – संतुष्ट और संतुष्ट रहना।
- “तपस” – आत्म-अनुशासन का अभ्यास करना।
- “स्वाध्याय” – स्वाध्याय में संलग्न होना।
- “ईश्वर-प्रणिधान” – पूर्ण विश्वास के साथ एक उच्च शक्ति के प्रति समर्पण ।
निष्कर्ष:
सम्पूर्ण रूप से, चारुचर्या समाज के विकास और व्यक्तिगत समृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह न केवल एक व्यक्ति के अच्छे आचरण को प्रोत्साहित करता है, बल्कि समाज को भी समृद्ध और सहयोगी बनाता है।
Panchkosha Youtube Video: https://shorturl.at/zstRx
Subscribe this Youtube Channel for More Education Videos
For any Query: 84487 31058(WhatsApp)
CONTACT FOR DU SOL, NCWEB, IGNOU, NIOS (ASSIGNMENT, ADMISSION, NOTES, PRACTICAL)
Pawan Sah