Introduction to The Indian Constitution (भारतीय संविधान का परिचय) 

विषय – सूची

इकाई-1

संवैधानिक पूर्ववृत्त और भारतीय संविधान का निर्माण

इकाई-II

भारतीय संविधान में आधारभूत तत्त्व

इकाई-III

मूल अधिकार

इकाई –IV                                                                               

राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत

इकाई – V

पाठ-1 : प्रधानमंत्री

पाठ 2: संसद

पाठ-3 :न्यायपालिका

इकाई – VI

पाठ-1 : केंद्र – राज्य संबंध

पाठ-2 : विकेन्द्रीकरण

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प्रश्न 1.भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर- भारत के संविधान को 26 नवम्बर 1949 को अपनाया गया । अर्थात्, इस दिन संविधान सभा ने इसे अंतिम रूप दिया । लेकिन यह दो महीने बाद यानि 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। हालांकि संविधान के कुछ प्रावधान जैसे नागरिकता चुनाव, अस्थायी संसद एवं अन्य संबंधित प्रावधान 26 नवंबर 1949 को ही लागू हो गए थे। दो महीने बाद अर्थात 26 जनवरी 1950 को इसे इसलिए लागू किया गया था, क्योंकि इसी दिन यानि 26 जनवरी 1930 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत की आजादी का उत्सव मनाया था । यह अध्याय भारतीय संविधान की सरंचना के महत्वपूर्ण बिन्दुओं से संबंधित है।

  1. लिखित संविधान

भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है। भारत का संविधान एक संविधान सभा ने एक निश्चय समय तथा योजना के अनुसार बनाया था इसलिए यह लिखित संविधान है इस दृष्टिकोण से भारतीय संविधान, अमेरिकी संविधान के समुतुल्य है। जबकि ब्रिटेन और इजराइल का संविधान अलिखित है।

  1. विस्तृत संविधान

भारत का संविधान दुनिया में सबसे विस्तृत संविधान है क्योंकि भारतीय संविधान में विभिन्न प्रावधानों को काफी सहज तरीके से विस्तृत रूप में लिखा गया है, ताकि संविधान का पालन करने के दौरान शासन प्रशासन को अधिक कठिनाइयों का सामना ना करना पड़े। यही कारण है कि मूल रूप से भारतीय संविधान में कुल 395 अनुच्छेद ( 22 भागों में विभाजित) और 8 अनुसूचियाँ थी, किंतु विभिन्न संशोधनों के परिणामस्वरूप वर्तमान में इसमें कुल 448 अनुच्छेद (25 भागों में विभाजित) और 12 अनुसूचियां हैं।एच. वी. कामथ नेइसकी विशालता के सम्बन्ध में कहा था, “हमें इस बात का गर्व है कि हमारा संविधान विश्व का सबसे विशालकाय संविधान है। ”

  1. लचीलेपन और कठोरता का मिश्रण

भारतीय संविधान लचीलेपन और कठोरता का मिश्रण हैं। भारतीय संविधान के लचीले होने का अर्थ यह है कि भारतीय संविधान के कुछ प्रावधान ऐसे हैं, जिन्हें भारतीय संसद साधारण बहुमत के माध्यम से संशोधित कर सकती है। उदाहरण के लिए, राज्यों के नाम, राज्यों की सीमा इत्यादि ।

कठोर संविधान:-संविधान के कठोर होने का अर्थ यह है कि इस संविधान के कुछ ऐसे प्रावधान भी हैं, जिन्हें संशोधित करना भारतीय संसद के लिए आसान नहीं होता है। इन प्रावधानों के लिए न सिर्फ संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, बल्कि देश के आधे राज्यों के विधान मंडल के समर्थनकी आवश्यकता भी होती है। देश की संघीय व्यवस्था से संबंधित तमाम प्रावधान इसी प्रक्रिया के माध्यम से संशोधित किए जा सकते हैं। इस प्रकार भारतीय संविधान लचीलेपन और कठोरता का सुंदर मिश्रण है ।

  1. एकल नागरिकता

भारत का संविधान देश के प्रत्येक व्यक्ति को एकल नागरिकता प्रदान करता है। भारत में कोई भी राज्य किसी अन्य राज्य के वासी होने के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। इसके अलावा, भारत में, किसी भी व्यक्ति को देश के किसी भी हिस्से में जाने और कुछ स्थानों को छोड़कर भारत की सीमा के भीतर कहीं भी रहने का अधिकार है।

  1. समाजवादी राज्य

समाजवादी अर्थात यह अपने सभी नागरिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित करता है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि भारत सभी रूपों में शोषण के खिलाफ है और अपने सभी नागरिकों के लिए आर्थिक न्याय में विश्वास रखता है।

  1. मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्य

मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्य, संविधान की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं। वे अधिकार जो लोगों के जीवन के लिये अति आवश्यक या मौलिक समझे जाते हैं उन्हें मूल अधिकार (fundamental rights) कहा जाता है। भारतीय संविधान के भाग- III में निहित, मौलिक अधिकार भारत के संविधान द्वारा प्रदान किये गए बुनियादी मानवाधिकार है। छह मौलिक अधिकारों में समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार और संवैधानिक उपचार का अधिकार शामिल हैं।

मौलिक कर्तव्‍य:- हर नागरिक का यह कर्तव्‍य है कि वह संविधान का पालन करे व उसके आदर्शों, संस्‍थाओं, राष्‍ट्र ध्‍वज और राष्‍ट्रगान का आदर करे। स्‍वतंत्रता के लिए हमारे राष्‍ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्‍च आदर्शों को ह्रदय में संजोए रखे तथा पालन करे। भारत की प्रभुता एकता, और अखंडता की रक्षा करे।

  1. सरकार का संसदीय स्वरूप

भारत में सरकार का संसदीय स्वरूप है। भारत में दो सदनों – लोकसभा और राज्य सभा,वाली विधायिका है। सरकार के संसदीय स्वरूप में, विधायी और कार्यकारिणी अंगों की शक्तियों में कोई स्पष्ट अंतर नहीं है। भारत में, सरकार का मुखिया प्रधानमंत्री होता है।

  1. भारतीय संविधान – संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न राज्य

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में घोषित किया गया है कि भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न राज्य होगा। इसका अर्थ है कि भारत की सरकार किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के अंतर्गत कार्य नहीं करेगी। भारत की सरकार भारत के हित से संबंधित निर्णय लेने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र होगी। कोई भी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था या संगठन या अन्य देश की सरकार भारत पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं बना सकती है।

  1. गणतन्त्रात्मक शासन प्रणाली की स्थापना

संविधान की प्रस्तावना में गणराज्य की स्थापना का संकल्प व्यक्त किया गया है। गणराज्य का तात्पर्य ऐसे राज्य से है जिसमें शासन का प्रधान आनुवंशिक न होकर जनता द्वारा निर्वाचित हो। हमारे शासन का सर्वोच्च पदाधिकारी राष्ट्रपति होता है, उसका निर्वाचन जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि करते हैं। अत: भारत में सदियों से चली आ रही राजतन्त्रात्मक शासन प्रणाली को समाप्त करके गणतन्त्रात्मक शासन प्रणाली की स्थापना की गई है।

  1. संघात्मक शासन की स्थापना

भारत 28 राज्यों का एक संघ है। भारत “में केन्द्र तथा राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन किया गया है। इस हेतु तीन सूचियाँ बनाई गई हैं-संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। अवशिष्ट विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त है। केन्द्र तथा राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों के समाधान की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान की गई है। डॉ. अम्बेडकर के शब्दों में, “संविधान ने शक्तिशाली संघीय शासन की स्थापना की है।”

  1. धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना

भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की गई है। हमारे संविधान में लिखा हुआ है कि धर्म के आधार पर सरकारी नौकरियों में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। देश के सभी नागरिकों को किसी भी धर्म को स्वीकार करने तथा उसका प्रचार करने की स्वतन्त्रता होगी। राज्य से सहायता प्राप्त स्कूलों तथा कॉलेजों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। प्रत्येक सम्प्रदाय को धार्मिक संस्थाएं स्थापित करने, उनका प्रबन्ध करने तथा चल अथवा अचल सम्पत्ति रखने का अधिकार होगा।

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प्रश्न 2. मौलिक अधिकार क्या है? मौलिक अधिकारों की प्रकृति तथा विशेषता की व्याख्या कीजिए

उत्तर-

मौलिक अधिकार एवं प्रकृति / विशेषता:

मौलिक अधिकार उन अधिकारों को कहा जाता है जो व्यक्ति के जीवन के लिये महत्वपूर्ण हैं  और यह संविधान द्वारा देश के नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं जिनमें राज्य द्वारहस्तक्षेप(interfere) नही किया जा सकता। ये ऐसे अधिकार हैं जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के पूर्णविकास के लिये आवश्यक हैं और जिनके बिना मनुष्य अपना पूर्ण विकास नही कर सकता।

भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं के रूप में मौलिक अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया है।

भारतीय संविधान के भाग- III(अनुच्छेद 12-35)मेंमौलिक अधिकार के बारे में बताया गाया है छह मौलिक अधिकार इस प्रकार हैं:-

 समानता को बढ़ावा देना

मौलिकअधिकारनागरिकों को समाज में समानता का अधिकार प्रदान करते हैं जैसे-अस्पृश्यता(छुआछूत)  पर रोक, लिंग, जन्म, जाति या धर्म के आधार पर पक्षपात पर रोक, बाल मज़दूरी पर रोक, आदि। ये अधिकार राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और  आर्थिक समानता को बढ़ावा देने की भी बात करतें है। अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा मौलिक अधिकार में निहित है।

मौलिक अधिकार प्रजातंत्र के आधार स्तंभ है। यह व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक और नागरिक जीवन के विकास के लिए एकमात्र साधन है। मौलिक अधिकारों द्वारा उन आधारभूत स्वतंत्रता और स्थितियों की व्यवस्था की गई है जिनके अभाव में व्यक्ति उचित रूप से अपना जीवन यापन नहीं कर सकता है।

राज्य के सामान्य कानूनों से ऊपर

मौलिक अधिकार को देश के सर्वोच्च कानून अर्थात् संविधान में स्थान दिया गया है और साधारणतया संविधान संशोधन प्रक्रिया के अतिरिक्त इनमें और किसी प्रकार से परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इस प्रकार मौलिक अधिकार संसद और राज्य-विधानमण्डलों द्वारा बनाये गये कानूनों से ऊपर है। संघीय सरकार या राज्य-सरकार इनका हनन नहीं कर सकती।

 न्यायालय द्वारा संरक्षण

भारतीय संविधान के तीसरे भाग मेंमौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है जो सामान्य स्थिति में सरकार द्वारा सीमित नहीं किए जा सकते हैं। और इनकी सुरक्षा सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court)  द्वारा की जाती  है। संविधान की व्यवस्था के अनुसार मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए भारतीय न्यायपालिकाहै।संविधान के अनुच्छेद 32 के अनुसार,यदि किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है  तो वह न्यायालय जा सकता है और शिकायत या अपील कर सकता है , जो कानून मौलिक अधिकार का उल्लंघन करते हैं उन्हें न्यायपालिका द्वारा अवैध घोषित कर दिया जाता है।

सरकार की निरंकुशतापर अंकुश

मौलिक अधिकार केंद्र और राज्य सरकार के अनुचित कानूनों पर प्रतिबंध या अंकुश लगाते हैं , संविधान द्वारा इनके उपयोग का पूर्ण आश्वासन दिया गया है। अत: किसी भी स्तर की भारत सरकार मनमानी करते हुए उन पर अनुचित रूप से प्रतिबंध नहीं लगा सकती ।

 

प्रश्न 3. संविधान में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों/विशेषता/महत्त्व/प्रावधानों की व्याख्या कीजिए ।

उत्तर –

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत:-राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत सरकार को दिए गए कुछ महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश हैं ताकि वह उसके अनुसार काम कर सके और कानून और नीतियां बनाते समय उनका उल्लेख कर सके और एक न्यायपूर्ण समाज का निर्माण कर सके। इन सिद्धांतों का उल्लेख संविधान के भाग IV के आर्टिकल 36 से 51 में किया गया है। निर्देशक सिद्धांत न्यायोचित नहीं यानी सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ हम अपील या शिकायत नहीं कर सकते हैं।

संविधान के निर्माताओं ने सामाजिक और आर्थिक समानता लाने के विशेष उद्देश्य से संविधान में इन्हें सम्मिलित किया । ये सिद्धांत राज्यों (सरकारों) को लोगों की सामूहिक भलाई के लिए नीति और कानून बनाने के निर्देश देते हैं।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत/प्रावधान:-

  • राज्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करके और आय, स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को कम करके सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित और संरक्षित करके लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने का प्रयास करता है।-(अनुच्छेद 38)
  • राज्य देश के नर और नारी सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्रदान करने का प्रयत्न करेगा । ( अनुच्छेद 39-क)
  • राज्य समाज की भौतिक सम्पति के स्वामित्व और नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था करेगा जिससे अधिकाधिक सार्वजनिक हित हो सके । ( अनुच्छेद 39 -ख)
  • राज्य आर्थिक व्यवस्था को इस प्रकार से चलाने का प्रयत्न करेगा जिससे धन और उत्पादन साधनों का सर्वसाधारण के लिए हितकारी केन्द्रीयकरण हो । ( अनुच्छेद 39-ग)
  • राज्य पुरूषों और स्त्रियों, दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था करेगा । ( अनुच्छेद 39-घ)
  • राज्य ऐसी व्यवस्था करेगा कि श्रमिक पुरूषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा शक्ति का और बालकों की अवस्था का दुरूपयोग न हो। राज्य यह देखेगा की आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु के अनुकूल न हों । ( अनुच्छेद 39-ड)
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 40 ग्राम पंचायत के संगठन से संबंधित है । राज्य ग्राम पंचायतों को व्यवस्थित करने के लिए कदम उठाएगा। यह उन्हें ऐसी शक्तियों और अधिकारों से संपन्न करता है जो उन्हें स्वशासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने में सक्षम बनाएंगे।(अनुच्छेद 40)
  • राज्य अपने आर्थिक साधनों के अनुसार तथा विकास की सीमाओं के भीतर यह प्रयत्न करेगा कि सभी नागरिकों को योग्यतानुसार काम मिल सके, वे शिक्षा पा सकें और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी तथा अंगहीनता आदि की दशाओं में सार्वजनिक सहायता पा सकें । ( अनुच्छेद 41 )
  • राज्य श्रमिकों के लिए काम, निर्वाह – मजदूरी, शिष्ट जीवन स्तर समुचित अवकाश तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्रदान कराने का प्रयास करेगा। राज्य विशेष रूप से गांवों में कुटीर उद्योगों को व्यक्तिगत या सहकारी आधार पर बढ़ाने का प्रयत्न करेगा । ( अनुच्छेद 43 )
  • राज्य समाज के कमज़ोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों (एससी),अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अन्य कमज़ोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देगा।(अनुच्छेद 46)
  • सभी बच्चों को छह वर्ष की आयु पूरी करने तक प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा प्रदान करना।(अनुच्छेद 45)
  • राज्य वैज्ञानिक आधार पर कृषि और पशु-पालन का संचालन करेगा |गायों, बछड़ों और अन्य दुधारू पशुओं के वध पर रोक लगाने तथा मवेशियों को पालने एवं उनकी नस्लों में सुधार करने के लिये।(अनुच्छेद 48)
  • पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना तथा देश के वनों एवं वन्यजीवों की रक्षा करना।(अनुच्छेद 48A)

महत्व/विशेषता:

निदेशक तत्वों के पीछे जनमत की शक्ति (Power of Public Opinion behind the Principles) –इन निदेशक तत्वों को न्यायालय द्वारा क्रियान्वित(implement) नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके पीछे जनमत की सत्ता होती है, जो प्रजातंत्र का सबसे बड़ा न्यायालय है। अतः जनता के प्रति उतरदायी कोई भी सरकार इनकी अवलेहना का साहस नहीं कर सकती।

शासन द्वारा किया गया इनका बार-बार उल्लंघन देश में शक्तिशाली विरोध को जन्म देता है। व्यवस्थापिका (कार्यपालिका)के भीतर शासन को विरोधी दल के प्रहारों का सामना करना पड़ेगा और व्यवस्थापिका के बाहर इसे निर्वाचन के समय निर्वाचको को जवाब देना होगा।

शासन के मूल्यांकन का आधार(Basis of the Evaluation of Government)

नीति-निदेशक तत्वों के  द्वारा देश की सरकार के कार्यों का सफलतापूर्वक मूल्यांकन किया जाता है  इससे यह  पता चलता है कि सरकार अपने कार्यों को किस प्रकार करती है।

नीति निदेशक तत्वों द्वारा जनता को शासन की सफलता व असफलता की जाँच करने का मापदण्ड भी प्रदान किया जाता है। शासक दल द्वारा अपने मतदाताओं को निदेशक सिद्धांतों के संदर्भ में अपनी सफलताएं बतानी होती है  इस प्रकार निदेशक तत्व जनता को विभिन्न दलों की तुलनात्मक जांच करने योग्य बना देते हैं।

संविधान की व्याख्या में सहायक (Helpful in the Interpretation of the Constitution ) –संविधान के अनुसार निदेशक तत्व देश के शासन में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। जिसका तात्पर्य है कि देश के प्रशासन के लिए उतरदायी सरकार उनके अनुसार कार्य करेगी।

न्यायपालिका भी शासन का एक महत्वपूर्ण अंग है। इस कारण यह आशा की जाती है कि भारत में न्यायालय संविधान की व्याख्या के कार्य में निदेशक तत्वों को उचित महत्व देगी,  न्यायालयों का यह कर्तव्य है कि मौलिक अधिकारों सम्बन्धी उपबन्धों की व्याख्या करते समय राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का भी ध्यानरखें।

कार्यपालिका पर अंकुश

विधानसभा के सदस्यों तथा कुछ संविधान निर्माताओं ने यह संदेह व्यक्त किया है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल इस आधार पर किसी विधेयक पर अपनी सम्मति देने से इंकार कर सकते हैं कि वह निदेशक तत्त्वों के प्रतिकूल है, लेकिन व्यवहार में ऐसी घटनाकी सम्भावना कम है क्योंकि संसदात्मक शासन प्रणाली में नाममात्र का कार्यपालिका प्रधान लोकप्रिय मंत्रिपरिषद द्वारा पारित विधि को अस्वीकृत करने का दुःसाहस नहीं कर सकता। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार, विधायिका द्वारा पारित विधि को अस्वीकृत करने के लिए राष्ट्रपति या राज्यपाल निदेशक तत्त्वों का प्रयोग नहीं कर सकते।

 

 प्रश्न 4. भारतीय संविधानरूप में संघीय है या एकात्मक चर्चा करें?

उत्तर-

एकात्मक शासन:- एकात्मक शासन उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके अंतर्गत देश की सारी शक्तियां केंद्र सरकार के पास होती  हैं, इसे हम एक उदाहरण के द्वारा समझ सकते हैं जैसे 1975 में जब भारत में आपातकाल लगा  था तब देश की सारी शक्तियां इंदिरा गाँधी के हांथो में चली गई थी।इस आधार पर हम कह सकते है कि भारत का संविधान संघीय  होने के साथ- साथ एकात्मक भी है ।

संघात्मक शासन:-संघात्मक शासन उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके अंतर्गत देश की सम्पूर्ण शक्तिओं का केंद्र एवं राज्य  सरकार  बीच बंटवारा किया जाता है । भारतीय संविधान में संघात्मक शासन के बारे में बताया गाया है , भारत के अन्दर केंद्र ,राज्य और स्थानीय सरकार के बीच शक्तिओं का बंटवारा किया जाता है ।

एकात्मक शासन  की ओर झुकाव के साथ संघीय व्यवस्था:- भारतीय संविधान में कनाडा आस्ट्रेलिया, जर्मनी, अमेरिका सभी के संविधानों से कुछ-कुछ भाग ग्रहण किया गया है हालाँकि भारतीय संविधान में संघीय व्यवस्थाकनाडाके संघीय व्यवस्था से ली गई है जबकि एकात्मक शासन की व्यवस्था आस्ट्रेलिया और अमेरिका से ली गई है।

संघीय व्यवस्था में संविधान की सर्वोच्चता, शक्तियों का विभाजन आदि सभी महत्त्वपूर्ण लक्षण पाए जातें हैं। भारतीय संविधान में बड़ी संख्या में गैर संघीय लक्षण विद्यमान है,भारतीय संविधान में  एकात्मक शासन की ओर झुकाव देखने को मिलता है जैसे केंद्र सरकार का मजबूत होना, एकल नागरिकता, अखिल सेवाएँ (upsc), आपातकाल आदि एकात्मक शासन के लक्षण हैं। भारतीय संविधान में अतिरिक्त शक्तियाँ केन्द्र के पास हैं। हालाँकि संवैधानिक संस्थाएँ जिनकी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है जैसे वित्त आयोग, नीति आयोग  इनकी नियुक्ति भी केन्द्र सरकार द्वारा ही कीजाती है।

सातवीं अनुसूची: सातवीं अनुसूची के तहत अनुच्छेद 246 में तीन सूचियाँ शामिल हैं: संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। राज्य सूची में 61 विषय शामिल हैं जिसमें संबंधित राज्य सरकार के पास कानून बनाने की एकमात्र शक्ति है। समवर्ती सूची में 52 विषय शामिल हैं जिसमें केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को संयुक्त रूप से कानून बनाने की शक्तियां हैं।

संकट काल में एकात्मक शासन व्यवस्था:-आपातकाल के दौरान संघात्मक ढांचा एकात्मक व्यवस्था में बदल जाता है। अनुच्छेद 352,अनुच्छेद 356 और अनुच्छेद 360 के अंतर्गत आपातकाल की उद्घोषणा से केंद्र की शक्तियों में व्यापक वृद्धि हो जाती है। विधायी शासकीय एवं वित्तीय शक्तियों की दृष्टि से केंद्र को महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाते हैं।

  • अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं, जब भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा को युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से खतरा हो। जब राष्ट्रीय आपातकाल ‘युद्ध’ या ‘बाह्य आक्रमण’ के आधार पर घोषित किया जाता है, तो इसे ‘बाह्य आपातकाल’ कहा जाता है।
  • अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में आपातकाल की घोषणा से राज्य का संपूर्ण कार्य राष्ट्रपति अपने प्रतिनिधि राज्यपाल के माध्यम से संचालित करता है,
  • अनुच्छेद 360 के अनुसार वित्तीय आपातकाल की घोषणा के दौरान राज्य के समस्त वित्तीय मामलों पर राष्ट्रपति का वित्तीय नियंत्रण स्थापित हो जाता है। इस प्रकार एम वी पायली के अनुसार  संकट काल की घोषणा से संविधान का संघात्मक स्वरूप समाप्त हो जाता हैऔर केंद्रीय शासन सर्वोपरि हो जाती है।

 

प्रश्न 5. भारतीय संविधान की मूलभूत संरचना का आलोचनात्मक परीक्षण करें?

उत्तर-

संविधान की मूलभूत संरचना : भारत के संविधान में कहीं भी मूलभूत संरचना “ शब्द का उल्लेख नहीं है। यह विचार है कि संसद ऐसे कानून पेश नहीं कर सकती जो संविधान की मूल संरचना में संशोधन करें, समय और कई मामलों के साथ धीरे-धीरे यह विकसित हुए। मूलभूत संरचना भारतीय लोकतंत्र की प्रकृति को संरक्षित करना और लोगों के अधिकारों तथा  स्वतंत्रता की रक्षा करना है। भारतीय संविधान का यह मूल संरचना का  सिद्धांत संविधान की भावना की रक्षा और संरक्षण में मदद करता है।

1951 में शंकरी प्रसाद बनाम भारतीय संघ:

1951 में शंकरी प्रसाद बनाम भारतीय संघ द्वारा यह निर्णय आया कि  संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने का अधिकार संसद के पास है। संसद एवं केन्द्र को संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्ति प्राप्त थी।

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य:

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य हमारे भारतीय संविधान की मूल संरचना से संबंधित एक महत्वपूर्ण मामला है। भारतीय संविधान की कुछ मूलभूत विशेषताएं हैं जिन्हें बदला नहीं जा सकता क्योंकि ये भारतीय संविधान का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

न्यायमूर्ति खन्ना के अनुसार, मौलिक अधिकार वे प्रमुख विशेषताएं हैं जो देश के सभी नागरिकों को प्रदान की गई हैं। बुनियादी ढांचे को शुरू करने से पहले, मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी हिस्से को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद द्वारा संशोधित किया जा सकता है।

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्ववर्ती निर्णय को दोहराया अर्थात् संसद सामान्य विधि द्वारा मूल अधिकारों या मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती है लेकिन संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा सीमित कर सकती है।

इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है।

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य(1967):

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, जिसे संक्षेप में गोलकनाथ केस भी कहते हैं, का फैसला सुप्रीम कोर्टद्वारा 1967 में किया गया था। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी थी कि संविधान में वर्णित मूल अधिकारों में संसद द्वारा कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है।

मामला:

पंजाब में एक निश्चित परिवार हेनरी और विलियम गोलकनाथ के पास 500 एकड़ कृषि भूमि थी। हालाँकि, 1953 में, पंजाब सरकार पंजाब सुरक्षा और भूमि कार्यकाल अधिनियम लेकर आई। अधिनियम के अनुसार, एक व्यक्ति केवल 30  एकड़  भूमि का मालिक हो सकता है। इसलिए गोलकनाथ परिवार को अतिरिक्त भूमि छोड़ने का आदेश दिया गया औरभूमि में से केवल 30 एकड़ रखने की अनुमति दी गई बाकी जमीन,30 एकड़ भूमि के अलावा कुछ एकड़ जमीन किरायेदारों को मिलेगी)।

गोलकनाथ परिवार 1953 अधिनियम की वैधता को चुनौती देते हुए अदालत में गया। परिवार का मुख्य तर्क था-

  • 1953 के कानून ने अनुच्छेद 19(1)(एफ) में निहित संपत्ति के मालिक होने के उनके अधिकार को बाधित कर दिया।
  • कानून ने उन्हें अपनी पसंद का पेशा अपनाने से भी रोक दिया।
  • कानून ने समान सुरक्षा पाने के अधिकार को खतरे में डाल दिया, जैसा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है ।
  • इसके अलावा, परिवार ने अदालत से 17वें संशोधन (जिसके माध्यम से 1953 का कानून अस्तित्व में आया) को गैरकानूनी घोषित करने का भी आग्रह किया।

निर्णय:

न्यायमूर्ति सुब्बा राव इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि 17वें संशोधन ने संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को दिए गए किसी भी भूमि को प्राप्त करने और किसी भी कानूनी पेशे में शामिल होने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है।

न्यायमूर्ति सुब्बा राव ने कहा कि संसद के पास संविधान के भाग III में कोई संशोधन करने की शक्ति नहीं होगी जो कि  नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित है।

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):

  • 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की पीठ ने अपने संवैधानिक रुख में संशोधन करते हुए कहा कि संविधान संशोधन के अधिकार पर एकमात्र प्रतिबंध यह है कि इसके माध्यम से संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए।
  • इसके अंतर्गत संविधान की ‘आधारभूत संरचना’ (Basic Structure) का ऐतिहासिक सिद्धांत दिया गया था।
  • यह इस कारण से प्रसिद्ध था कि इसने लोकतांत्रिक शक्ति के संतुलन में बदलाव किया। इससे पहले के निर्णयों में यह कहा गया था कि संसद एक उचित विधायी प्रक्रिया के माध्यम से मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है।

निर्णय:

  • लेकिन इस मामले में निर्णय लिया गया कि संसद संविधान की मूल संरचना अर्थात् बुनियादी संरचनामें संशोधन या परिवर्तन नहीं कर सकती है।
  • इस सिद्धांत ने यह निर्णय दिया कि यदि संविधान की मूल संरचना से छेड़खानी की गई तो इस संविधान संशोधन को अमान्य किया जा सकता है।

 

 प्रश्न 6.  भारतीय संविधान ” उधार का थैला ” वर्णन करें?

उत्तर-

भारतीय संविधान को इसलिय उधार का थैला कहा जाता है क्योकि संविधान के कई विषय विश्व  के अन्य देशो से लिए गए थे जैसे आपातकाल जर्मनी से, मोलिक अधिकार अमेरिका से , नीतिनिर्देशक तत्व आयरलैंड से और संसदीय प्रणाली ब्रिटेन से ली गई है।

साठ से अधिक देशों के संविधान के विभिन्न प्रावधानों को अपनाने के साथ, भारतीय संविधान को उधार का थैला माना जाता है। वास्तव में, यह महज नकल नहीं थी, बल्कि हमारे संविधान को और अधिक सटीक बनाने के लिए किया गया प्रयास था। साठ से अधिक देशों के संदर्भ ने भारतीय संविधान को सबसे लंबे संविधान की विशेषता प्रदान की है। भारतीय संविधान की कई उधार ली गई विशेषताएं हैं, लेकिन इसे महज नकल नहीं माना जा सकता।

आयरिश संविधान

भारतीय संविधान की सबसे उल्लेखनीय उधार ली गई विशेषताओं में से एक राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत हैं। भारतीय संविधान में इन सिद्धांतों के संबंध में विवरण अनुच्छेद 36 से अनुच्छेद 51 तक वर्णित हैं। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से तात्पर्य उन सिद्धांतों से है जिन्हें किसी भी प्रकार का कानून या नीति बनाने से पहले ध्यान में रखा जाना चाहिए।

उपर्युक्त सिद्धांतों के अलावा, भारतीय संविधान में भारत के राष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित प्रावधान भी शामिल थे, जिन्हें आयरिश संविधान से भी उधार लिया गया है। नागरिकों को निर्देशित करने वाले प्रावधानों के अनुसार राष्ट्रपति को देश का प्रथम नागरिक माना जाता है।

अमेरिकी संविधान

अमेरिकी संविधान को सबसे पुराना और सबसे लंबे समय तक जीवित रहने वाला लिखित संविधान  माना गया है। भारतीय संविधान ने अमेरिकी संविधान से आवश्यक विशेषताएं उधार ली हैं जिनमें मौलिक अधिकार, न्यायिक समीक्षा, संविधान की प्रस्तावना, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाना और राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के विशिष्ट कार्य शामिल हैं।

ऑस्ट्रेलियाई संविधान

ऑस्ट्रेलियाई संविधान से उधार लिए गए सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान समवर्ती सूची, संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक, वाणिज्यऔर व्यापार की स्वतंत्रता हैं। समवर्ती सूची , प्रावधानों का उल्लेख भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची में किया गया है। इस सूची के अंतर्गत केंद्र सरकार और राज्य  सरकार  दोनों कानून बना सकते हैं ।

दक्षिण अफ्रीका के संविधान से ग्रहण किए गए सिद्धान्त 

भारत में राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर होता है। भारतीय संविधान की यह व्यवस्था दक्षिण अफ्रीका के संविधान से ग्रहण की गई है।

दक्षिण अफ्रीका की संसद साधारण कानूनों को पारित करने की विधि द्वारा संविधान में परिवर्तन कर सकती है। हमारे संविधान में भी कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं जिनमें संसद साधारण कानून बनाने की प्रक्रिया द्वारा परिवर्तन कर सकती है I इस प्रकार हमारे संविधान की संशोधन विधि का यह पक्ष दक्षिण अफ्रीका के संविधान से प्रभावित है।

समालोचना/आलोचना

भारतीय संविधान में उपर्युक्त संविधानों के प्रभाव व उनके उपबन्धों को शामिल कर लेने के कारण आलोचकों ने संविधान को भानुमती के कुनबे की भाँति गड़बड़कहा है।

आलोचकों ने इसे उधार का थैलाकहा है, कुछ जिसके कारण संविधान पेचीदा, जटिल और अस्पष्ट हो गया है। भारतीय संविधान के सम्बन्ध में उपर्युक्त आलोचनाएँ ठीक नहीं हैं। इन आलोचनाओं को अनुचित बताते हुए संविधान के समर्थकों ने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए हैं  –

संविधान निर्माताओं ने अन्धे होकर विदेशी संविधानों की नकल नहीं की है। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन के संविधान से संसदीय प्रणाली को ग्रहण किया गया है, परन्तु उसके साथ ब्रिटेन की  एकात्मक प्रणाली को ग्रहण नहीं किया । क्योंकि वह भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थी।

 

 प्रश्न 7.  संविधान सभा की भूमिका एवं बनावट की चर्चा करें?

उत्तर-

संविधान सभा की भूमिका एवं बनावट / सरंचना:

  • भारत का संविधान बनाने के लिए भारत की संविधान सभा का चुनाव किया गया। इसका चुनाव ‘ प्रांतीय सभा ‘ ​​द्वारा किया गया था।
  • संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या 389 थी। इनमें से 296 सीटें ब्रिटिश भारत और 93 सीटें देसी रियासतों को आवंटित की गई थीं। ब्रिटिश भारत को आवंटित की गईं 296 सीटों में 292 सदस्यों का चयन 11 गवर्नरों के प्रांतों और चार का चयन मुख्य आयुक्तों के प्रांतों (प्रत्येक में से एक) से किया गया था।
  • प्रत्येक प्रान्त को उसकी जनसंख्या के आधार पर संविधान सभा में स्थान दिया गया था। लगभग 10 लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि निर्वाचित किया गया ।
  • केवल तीन मतदाता संघ बनाए जाए :

(अ) साधारण, (ब) मुस्लिम, (स) सिक्ख (केवल पंजाब में)

संविधान सभा का चुनाव

कैबिनेट मिशन की प्रस्तावित योजना के अनुरूप जुलाई 1946 में संविधान सभा का चुनाव हुआ जिसमें मुख्य मुकाबला कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग में था। कुल 232 सीटों में से 212 सीटें कांग्रेस और इसके समर्थकों ने जीती । मुस्लिम लीग को केवल 73 सीटे प्राप्त हुई ।

संविधान सभा की पहली सभा

संविधान सभा का पहला सम्मेलन 9 दिसम्बर 1946 को हुआ जिसमें कुल 296 सदस्यों ने भाग लिया। सचिदानन्द सिन्हा को सभा का अस्थाई अध्यक्ष चुना गया,13 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा ने एक उद्देश्य प्रस्ताव पारित किया जिसमें मुख्य बातें थी:

  • भारत में स्वतंत्र एवं सार्वभौम गणराज्य स्थापित की जाए। ।
  • सभी व्यक्तियों को राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक समानता दी जाए।
  • सभी व्यक्तियों को कोई भी व्यवसाय अपनाने, भाषण एवं लिखने, किसी भी धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
  • अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति एवं पिछड़े वर्गों के हितो की सुरक्षा के लिए आवश्यक प्रयत्न होना चाहिए ।

समितियों की नियुक्ति

उद्देश्य प्रस्ताव को पारित करने के बाद संविधान सभा ने कुछ समितियाँ नियुक्त की ताकि वे संविधान के विभिन्न पहलुओं पर गहन विचार करके अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करें:-

मसौदा समिति की नियुक्ति

विभिन्न समितियों की रिपोर्ट के आधार पर संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए 29 अगस्त, 1947 को संविधान सभा ने बी. आर. अम्बेडकर की अध्यक्षता में सात सदस्यों की मसौदा समिति का गठन किया।

इस समिति ने 21 फरवरी 1948 को संविधान का पहला मसौदा प्रस्तुत किया जिसमें 243 धाराएँ और 13 सूचियाँ शामिल थी। इसे जनता की राय जानने के लिए भेजा गया। जब इस मसौदे की अत्यधिक आलोचना हुई तो मसौदा समिति ने दूसरा मसौदा तैयार किया जिसमें 315 धाराएँ और नौ सूचियाँ थी। इसे संविधान सभा के सामने 21 फरवरी 1948 को रखा गया । अन्तिम प्रारूप में 395 धाराएँ और 8 सूचिया रखी गई कुल मिलाकर संविधान सभा सत्र बुलाए जिनमें 167 दिन लगे । इस प्रकार संविधान निर्माण में 2 वर्ष ग्यारह महीने और अठारह दिन लगे ।

संविधान सभा की कार्य प्रणाली

संविधान सभा ने अपना कार्य 20 से भी ज्यादा समितियों के माध्यम से किया। इनमें से ज्यादातर स्थाई समितियाँ थी । परन्तु मसौदा समिति ने संविधान निर्माण के अन्तिम क्षणों तक कार्य किया। इस समिति में ज्यादातर वकील लोग शामिल थे।

प्रजातान्त्रिक कार्य प्रणाली

संविधान सभा ने प्रजातान्त्रिक तरीके से अपना कार्य किया। इसके सदस्यों द्वारा 7635 संशोधन प्रस्ताव प्रस्तुत किए गए जिनमें से 2473 पर सभा ने वाद-विवाद किया गया। इसलिए इसने 2 वर्ष 11 महीनों और 18 दिन का समय लिया जबकि अमेरिका का संविधान 4 महीनें में बनकर तैयार हो गया था। कनाड़ा में 2 वर्ष का समय लगा। वहाँ पर अधिक संशोधन प्रस्तावों की समस्या नहीं थी । भारतीय संविधान सभा में सदस्यों की अधिक संख्या और लम्बी एवं खुली बहस के परिणामस्वरूप संविधान बनाने में अधिक समय लगा। इसके निर्माण पर 64 मिलियन रूपये की लागत आई ।

 

प्रश्न 8. मौलिक अधिकारों तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के मध्य तुलनात्मक अध्ययन कीविवेचना कीजिए |

अथवा

मौलिक अधिकारों तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के संबंधों का विश्लेषण कीजिए ।

उत्तर –

मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत भारतीय संविधान के आवश्यक तत्व हैं । मौलिक अधिकार राजनीतिक लोकतंत्र को सुनिश्चित करने में मदद करते हैं, जबकि नीति निर्देशक सिद्धांत राज्य की सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को सुनिश्चित करने में मदद करता है।

मौलिक अधिकार

मौलिक अधिकार वे मूलभूत अधिकार होते हैं, जिनके बिना व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास नहीं हो सकता है। ये अधिकार व्यक्ति के जीवन के चहुमुखी विकास के लिए संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये गए है। भारतीय संविधान के भाग 3 में (अनुच्छेद 14 से 32 तक) छः मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। समता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा का अधिकार और संवैधानिक उपचारों का अधिकार । ये ऐसे अधिकार हैं जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिये आवश्यक हैं, जिनके बिना मनुष्य का सम्पूर्ण विकास नहीं हो सकता ।

राज्य के नीति-निर्देशक तत्व

राज्य के नीति निर्देशक तत्व का वर्णन संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक किया गया है। नीति निर्देशक तत्व को न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता यानी कि नीति निर्देशक तत्वों को वैधानिक शक्ति प्राप्त नहीं है। यह सरकार पर निर्भर करता है कि वह इसे लागू करना चाहती हैं या नहीं । राज्य के नीति निदेशक तत्व का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का निर्माण करना है जिसके तहतनागरिक एक अच्छा जीवन व्यतीत कर सकें। उनका उद्देश्य कल्याणकारी राज्य के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना भी है।

 

मौलिक अधिकारों तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के बीच संबंध/तुलनात्मक अध्ययन:

1. मौलिक अधिकार राजनीतिक स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा देते हैं जो कि लोकतंत्र का आधार हैं, जबकि नीति निदेशक तत्त्व समग्र विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें समाजवाद, उदारवाद, गांधीवाद जैसे मूल्यों का समायोजन है।

2.मौलिक अधिकार व्यक्तिगत अधिकार हैं जो संविधान में निहित हैं और व्यक्तियों की सुरक्षा और भलाई के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इनका उल्लंघन होने पर नागरिक सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है, मौलिक अधिकारों में आम तौर पर जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता, समानता और बोलने की स्वतंत्रता जैसी स्वतंत्रताएं शामिल हैं।

दूसरी ओर, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (डीपीएसपी) समाज में सामाजिक और आर्थिक न्याय स्थापित करने के लिए संविधान द्वारा राज्य को दिए गए दिशानिर्देशों और सिद्धांतों का एक समूह हैं। नीति निर्देशक तत्व गैर-न्यायसंगत हैं, जिसका अर्थ है कि वे न्यायालय द्वारा लागू नहीं किए जा सकते हैं। ये लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए नीतियां और कानून बनाने में सरकार को मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। नीति निर्देशक सिद्धांत में अक्सर सामाजिक न्याय, आर्थिक कल्याण, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत की सुरक्षा से संबंधित सिद्धांत शामिल होते हैं।

  1. मौलिक अधिकारों को संविधान का सरंक्षण प्राप्त है और वे न्याय योग्य हैं, जबकि नीति निर्देशक तत्त्वोंको नहीं। अतः इस दृष्टिकोण से मौलिक अधिकार अधिक महत्वपूर्ण है।
  2. मौलिक अधिकार बताता है कि नागरिकों को क्या दिया जा चुका है जबकि नीति निर्देशक तत्त्व बताते हैं कि और क्या दिया जाना बाकी है। इस तरह नीति निदेशक तत्त्व मौलिक अधिकार का मार्गदर्शन करता है।
  3. मौलिक अधिकारों में संशोधन का आधार भी नीति निदेशक तत्त्व होते है। जैसे संपत्ति के अधिकार को कानूनी अधिकार बनाना व 86वाँ संविधान संशोधन का आधार भी नीति निदेशक तत्त्व है।
  4. मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों के बीच टकराव हो सकता है। यदि नीति निर्देशक सिद्धांत को लागू करने के लिए बनाया गया कोई कानून या नीति मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है, तो न्यायालय उल्लंघन की तर्कसंगतता का आकलन करने के लिए कदम उठा सकती हैं और यह निर्धारित कर सकती हैं कि क्या यह सीमा के भीतर आता है।

न्यायालय अक्सर व्यक्तिगत अधिकारों केनिर्धारित कर सकती है कि क्या यह सीमा के भीतर आता है। न्यायालय अक्सर व्यक्तिगत अधिकारों क प्रतिस्पर्धी हितों और समाज के सामूहिक कल्याण के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करती हैं।

मौलिक अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सुरक्षा की गारंटी देते हैं, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत एक न्यायसंगत और न्यायसंगत समाज को प्राप्त करने के लिए सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सरकार का मार्गदर्शन करते हैं।

 

 प्रश्न 9. भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों को परिभाषित कीजिए ।

उत्तर-

मौलिक कर्तव्य: मौलिक कर्तव्य वह आधारभूत कर्तव्य होते हैं जो व्यक्ति की उन्नति एवं देश व समाज की प्रगतिके लिए अत्यंत आवश्यक होते हैं। साधारण शब्दों में कहा जाए तो किसी कार्य को करने के दायित्व को मौलिक कर्तव्य कहा जाता है। मौलिक कर्तव्य मुख्य रूप से व्यक्ति के विकास आदि कार्य से संबंधित होते हैं । भारतीय संविधान में जिस प्रकार सभी नागरिकों के लिए एक समान अधिकार का प्रावधान किया गया है ठीक उसी प्रकार नागरिकों के मौलिक कर्तव्य की भी विवेचना की गई है। यह देश के विकास के लिए बेहद जरूरी माना जाता है।

मौलिक कर्तव्य देश की एकता एवं अखंडता की सुरक्षा करने के साथ-साथ देश के नागरिकों में राष्ट्रप्रेम की भावना को भी बढ़ावा देता है। भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों को मुख्य रूप से सोवियत संघ से लिया गया है।

 इसे भारतीय संविधान में सर्वप्रथम वर्ष 1976 में संविधान के 42 वें संशोधन अधिनियम के तहत जोड़ा गया था। भारत के संविधान में मौलिक कर्तव्यों का विवरण भाग अनुच्छेद 51 के भाग में मिलता है।

मौलिक कर्तव्य कितने हैं:

शुरुआत में अनुच्छेद 51 भाग (अ) के तहत कुल 10 मौलिक कर्तव्य को भारतीय संविधान में जोड़ा गया था। जिसके बाद वर्ष 2002 में 86 वें संविधान संशोधन अधिनियम की सूची में एक और मौलिक कर्तव्य को जोड़ा गया था। इस प्रकार भारतीय संविधान में कुल 11 मौलिक कर्तव्य शामिल है।

मौलिक कर्तव्यों का महत्व

भारतीय संविधान में अधिकारों एवं कर्तव्य में एक गहरा संबंध होता है। यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते हैं क्योंकि कर्तव्यों के बिना अधिकारों की मांग करना न्याय संगत नहीं होता |

महात्मा गांधी के विचार धाराओं के अनुसार व्यक्ति के अधिकारों का एकमात्र स्रोत वास्तव में कर्तव्य ही होते हैं और यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता है तो उसे किसी भी प्रकार के अधिकार की मांग करने की आवश्यकता नहीं होती। मौलिक कर्तव्य प्रत्येक नागरिकों के लिए प्रेरणा का स्रोत है जिससे नागरिकों में अनुशासन प्रियता को बढ़ावा मिलता है।

इसके अलावा मौलिक कर्तव्यों को विभिन्न कार्यों में बेहद सहायक माना गया है जो कुछ इस प्रकार हैं:-

देश की प्रगति में सहायक

मौलिक कर्तव्य देश के नागरिकों में देश प्रेम की भावना को जागृत करने का कार्य करते हैं जिससे देश की प्रगति की राह प्रशस्त होती है। मौलिक कर्तव्य के माध्यम से देश के नागरिकों से यह उम्मीद की जाती है कि वह संकट के समय में देश की सुरक्षा अपने पूरे तन-मन-धन से करें।

लोकतंत्र को सफल बनाने में सहायक

भारतीय संविधान में लोकतंत्र की एक अहम भूमिका होती है। भारतीय लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था मौलिक कर्तव्य के आधार पर सुदृढ़ होती है। माना जाता है कि मौलिक अधिकारों का लोकतंत्र को सफल बनाने में एक विशेष भूमिका होती है। जब देश के नागरिक लोकतांत्रिक संस्थाओं के आदर्शों का पालन करते हैं तो इससे लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को बढ़ावा मिलता है।

देश की संस्कृति की रक्षा एवं संरक्षण करने हेतु सहायक

भारत देश में संयुक्त संस्कृति होने के कारण लगभग सभी राज्यों में विभिन्न प्रकार की प्रतिभाशाली परंपराओं का पालन किया जाता है। मौलिक कर्तव्य का पालन करने से देश में विभिन्न प्रकार की परंपरा को स्थापित करने एवं उनका संरक्षण करने में सहायता प्राप्त होती है जिससे देश की संस्कृति की रक्षा होती है। इसके अलावा मौलिक कर्तव्य का निर्वहन करने से देश की सांस्कृतिक एकता को भी बढ़ावा मिलता है।

नारियों का सम्मान

देश के नागरिकों द्वारा मौलिक कर्तव्य का निष्ठापूर्वक निर्वाहन करने से समाज में महिलाओं को सम्मान प्राप्त होता है। केवल इतना ही नहीं मौलिक कर्तव्यों के कारण स्त्रियों की गरिमा में भी वृद्धि होती है। इससे समाज में लिंग संबंधी भेदभाव का अंत होता है जिससे देश में समानता का स्तर स्थापित होता है।

विश्व बंधुत्व की भावना का विकास

मौलिक कर्तव्यों में देश के नागरिकों को सद्भावना के आदर्शों को बनाए रखने का निर्देश दिया गया है जिससे देश एवं विश्व में बंधुत्व की भावना का विकास होता है। इसके साथ ही मौलिक कर्तव्य में अहिंसा के मार्ग पर चलने का परामर्श भी दिया गया है।

11 मौलिक कर्तव्य:

1. प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह भारत की संप्रभुता, एकता एवं अखंडता की रक्षा करके उसे अटूट बनाए रखें।

2.देश के नागरिक भारतीय संविधान के सभी नियमों का पालन करें एवं उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज एवं राष्ट्रगान का आदर करें।

3.स्वतंत्रता हेतु राष्ट्रीय आंदोलनों को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों का आंतरिक रूप से सम्मान करके राष्ट्रगान का आदर करें।

4.प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह हर परिस्थिति में देश की रक्षा करने हेतु सदैव तत्पर रहें।

5.प्रत्येक नागरिक सामाजिक संस्कृति की प्रतिभाशाली परंपराओं के महत्व को समझे एवं उसका निर्माण करें।

6.भारत के सभी नागरिकों में समरसता भ्रातृत्व की भावना का निर्माण एवं विकास हो सके।

7.वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानववाद एवं ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें।

8.भारत के नागरिक प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा एवं उसको बढ़ावा देने का निरंतर प्रयास करें।

9. प्रत्येक नागरिक का मुख्य रूप से यह कर्तव्य होगा कि वह सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखने की चेष्टा करें।

10.भारतीय संविधान के 86 वें संशोधन के अंतर्गत माता-पिता आपने 6 से 14 वर्ष के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करें।

11.व्यक्तिगत एवं सामूहिक गतिविधियों के लगभग सभी क्षेत्रों में प्रगति करने का निरंतर प्रयास करते रहें।

 

प्रश्न 10. भारत में स्थानीय शासन/ पंचायती राज  के इतिहास का वर्णन कीजिए

उत्तर-

स्थानीय शासन/ पंचायती राज:- साधारण शब्दों में स्थानीय शासन से अभिप्राय उस शासन से होता है जहाँ स्थानीय मामलों का प्रबन्ध स्थानीय व्यक्ति स्वयं अपने प्रतिनिधियों द्वारा करते हैं। इस शासन का सम्बन्ध किसी स्थान विशेष में रहनेवाले लोग तथा उनके द्वारा चलाए जानेवाले शासन से होता है । व्यवहार में वे सब कार्य जिनका सम्पादन ग्राम पंचायतों, ब्लाक समितियों, जिला परिषदों नगर- पालिकाओं, परिषदों तथा निगमों द्वारा होता है, स्थानीय शासन के अन्तर्गत आते हैं।

स्थानीय शासन सत्ता के विकेन्द्रीयकरण पर आधारित है और इसका मुख्य उद्देश्य स्थानीय क्षेत्र के निवासियों का कल्याण एवं विकास करना होता है। स्थानीय स्तर पर गठित संस्थाएँ स्वतन्त्र व स्वायत्त होती हैं और ये प्रशासन का संचालन बिना रोकटोक करती हैं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि ये पूर्णतः स्वतन्त्र होती हैं, ये राज्य एवं केन्द्र सरकारों के अधीन रहकर कार्य करती हैं।

यह अधिनियम1992  में पारित किया गया और यह भारत में पंचायती राज व्यवस्था लागू करने के दिशा में एक बड़ा कदम था। स्थानीय स्वशासन की दृष्टि से इस संशोधन अधिनियम के द्वारा पंचायतों के गठन को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है।

स्थानीय शासन की परिभाषा:

जे०जे० क्लार्क (J.J. Clarke) के अनुसार, “स्थानीय शासन किसी भी राष्ट्र अथवा राज्य की सरकार का वह भाग है जो कि मुख्यतः ऐसे मामलों से संबंध रखता है, जो कि किसी जनपद अथवा स्थान के निवासियों से संबंधित होता है। ”

भारत में स्थानीय शासन/ पंचायती राज का इतिहास:

स्वतंत्रता के बाद  पंचायती राज की स्थापना को भारत में ग्रामीण पंचायती राज व्यवस्था को एक  ऐसी व्यवस्था है माना गया जो केन्द्रिय एवं राज्य सरकारो को स्थानीय समस्याओं के भार से हल्का करेगी।

पंचायती राज के अंतर्गत शक्तियों एवं कार्यो का विकेन्द्रीकरण किया जा सकता है। प्राजातांत्रिक प्रणाली में कार्यों का विकेन्द्रीकरण करने पर इस प्रक्रिया में शासकीय सत्ता गिनी चुनी संख्याओं में न रहकर गांव की पंचायत के कार्यकताओं के हाथों में पहुंच जाती है जिससे कि इनके अधिकार और कार्य क्षेत्र बढ़ जाते हैं। स्थानीय व्यक्ति स्थानीय समस्याओं को अच्छे ढंग से सुलझा सकते हैं क्योकि वे लोग वहां की समस्या व परिस्थितियों को अधिक अच्छे से जानते है।

राजस्थान देश का पहला राज्य था, जहां पंचायती राज की स्थापना हुई। इस योजना का उद्घाटन 2 अक्तूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया। बलवंत राय मेहता समिति की सिफ़ारिशों को राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा जनवरी, 1958 में स्वीकार किया गया।

सामुदायिक विकास कार्यक्रम

विकास की दिशा में सर्वप्रथम गरीबों एवं ग्रामीण विकास के शुभचिंतक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर 2 अक्टूबर 1952 को भारतीय शासन ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम का शुभारंभ किया गया।

2 अक्टूबर का दिन गांधीजी के जन्म तिथि होने के कारण चुना गया है। सामुदायिक विकास खंडो का निर्माण हुआ जिसका अध्यक्षता एक प्रशाशक को बनाया गया,इस समुदाय ने ग्रामीण विकास से सम्बंधित कार्य जैसे कृषि, पशुपालन शिक्षा, जान स्वास्थ्य अदि पर जोर देकर राष्ट्र की सफलता में अपना योगदान दे पाया। किन्तु दुर्भाग्यपूर्ण पैसो का आभाव और सही तरीका से कार्य प्रणालीको दिशा न देने के कारण यह कार्यक्रम असफल रहा।सामुदायिक विकास योजना का मुख्य उददेश्य ग्रामीण जीवन का सर्वागीण विकास करना तथा ग्रामीण समुदाय की प्रगति एवं श्रेश्ठतेर जीवन-स्तर के लिए पथ प्रदर्शन करना है।

बलवंत राय मेहता समिति

बलवंत राय मेहता समिति बलवंत राय मेहता समिति की स्थापना जनवरी वर्ष 1957 में की गई थी। बलवंत राय मेहता समिति का गठन पंचायती राज व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने हेतु किया गया था। इस समिति का गठन भारत सरकार द्वारा सामुदायिक विकास कार्यक्रमों की कार्यप्रणाली की उचित जांच करने हेतु किया गया था

बलवंतराय मेहता समिति की सिफारिशें:

  • बलवंत राय मेहता समिति की प्रमुख सिफारिश यह थी कि पंचायती राज की संरचना त्रिस्तरीय होनी चाहिए जिसमें मुख्य रुप से ग्राम पंचायत, जिला पंचायत एवं पंचायत समिति को आपस में परस्पर जुड़ा होना चाहिए।
  • इस समिति ने केंद्र सरकार के सम्मुख यह सिफारिश रखी थी कि पंचायतों में मुख्य रूप से महिलाओं, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए एक रिक्त स्थान होना चाहिए जिससे पंचायतों में जनता के आवश्यकतानुसार प्रतिनिधि चुनाव किया जा सके।
  • इस समिति ने विकेंद्रित प्रशासनिक संरचना का दायित्व जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि के हाथ में सौंपे जाने का प्रस्ताव रखा था ।
  • बलवंत राय मेहता समिति ने पंचायती राज संस्था की कार्यप्रणाली सरकारी प्रशासन तंत्र के माध्यम से संपन्न करने की सिफारिश की थी। इसके अलावा इस समिति ने कानून व्यवस्था को व्यापक रूप से स्थापित करने का प्रयास किया था।
  • इस समिति ने निम्न स्तर पर वित्तीय साधनों को उपलब्ध कराने की सिफारिश की थी। बलवंत राय मेहता समिति सरकार के द्वारा किए जाने वाले कार्य एवं अधिकारियों को निचले स्तर पर हस्तांतरित करना चाहती थी।

अशोक मेहता समिति

अशोक मेहता समिति का गठन 1977 में अशोक मेहता की अध्यक्षता में कियागया था। अशोक मेहता समिति का गठन मुख्य रूप से पंचायती राज व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने एवं उसकी कमियों को दूर करने हेतु किया गया था। बलवंत राय मेहता समिति की तरह ही अशोक मेहता समिति ने भी सत्ता का विकेंद्रीकरण करने का प्रयास किया था। अशोक मेहता समिति का मानना था कि सत्ता का विकेंद्रीकरण करने से भारत के लोकतंत्र को मजबूती मिलती है।

 

अशोक मेहता समिति ने पंचायत व्यस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए निम्लिखित सुझाव दिए थे:

  • जिला परिषद् को समस्त विकास कार्यो का केंद्र बिंदु बनाया जाये। मंडल पंचायत का गठन कई गांवों को मिलकर होना चाहिए।
  • पंचायती राज में नियमित निर्वाचन होना चाहिए।
  • राजनितिक दलों को इन चुनावों में भाग लेने का अधिकार होना चाहिए।
  • इस समिति ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या के आधार पर कुछ सीटों पर आरक्षण की मांग की थी।

 

प्रश्न 11. 73वें संशोधन अधिनियम और प्रमुख अनिवार्य प्रावधानों की व्याख्या कीजिए।

अथवा

73वें संविधान संशोधन की मुख्य विशेषताएँ बताईए।

उत्तर-

पंचायती राज 1992 में 73वें संशोधन विधेयक के रूप में पारित हुआ । बिहार व पश्चिम बंगाल सहित 17 राज्यों के अनुसमर्थन के बाद 20 अप्रैल 1993 को राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत किए जाने  के बाद यह  24 अप्रैल 1993 को लागू  हुआ ।

73वें संशोधन अधिनियम और प्रमुख अनिवार्य प्रावधान/ विशेषताएँ:-

पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक स्तर:- 73वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग भाग 9 पंचायत शीर्षक के साथ अनुच्छेद 243 एवं एक नई अनुसूची, ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गई है जिसके द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया  है।

ग्रामसभा को संवैधानिक स्तर:- ग्रामीण क्षेत्र में स्थानीय स्वशासन की प्रत्यक्ष लोकतंत्रीय संस्था के रूप में प्राथमिक स्तर पर प्रत्येक गांव के सभी वयस्क नागरिकों की सदस्यता से बनी ग्रामसभा की व्यवस्था की गई है। ग्राम सभा के कार्यों व शक्तियों के निर्धारण का अधिकार राज्य विधानमण्डलों को दिया गया है।

त्रिस्तरीय पंचायती राजव्यवस्था का गठन:- 73वें  संविधान संशोधन के माध्यम से भारत में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर पर), पंचायत समिति (मध्यवर्ती स्तर पर) और ज़िला परिषद (ज़िला स्तर पर) शामिल हैं।

पंचायतों की संरचना:-  पंचायती राज संस्थाओं का गठन करते समय राज्यों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रत्येक स्तर पर गठित की जानेवाली पंचायतीराज इकाई की जनसंख्या सम्पूर्ण राज्य में जहां तक संभव हो समान होनी चाहिए।

महिलाओं के लिए आरक्षण:73वें संविधान संशोधन अधिनियम की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि पंचायती राज संस्थाओं के सभी स्तरों पर महिलाओं के लिए स्थानों का आरक्षण किया गया है। अधिनियम में प्रावधान किया गया है। कि प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जानेवाले स्थानों की कुल संख्या के कम से कम एक तिहाई स्थान (33%) (जिसमें अनुसूचित जातियों / जनजातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या भी सम्मिलित है) महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। ऐसे स्थानों का आवंटन किसी पंचायत में चक्रानुक्रम में किया जाएगा।

कार्यकाल:- पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल अब 5 वर्ष निश्चित किया गया है। इससे पूर्व किसी कारण से इन संस्थाओं को भंग करना पड़े, तो 6 माह के अंदर ही पुनः चुनाव करवाना अनिवार्य है। इन पंचायती राज संस्थाओं हेतु राज्य निर्वाचन आयोग का गठन किया गया है।

ग्राम सभा का गठन:- प्रत्येक ग्राम पंचायत क्षेत्र पर एक ग्राम सभा का गठन होगा। उस ग्राम पंचायत क्षेत्र के समस्त वयस्क मतदाता उसके सदस्य होते है। वर्तमान में राजस्थान में वर्ष में चार बार इसकी बैठकें आहुत की जाती है जब कि दो बार, प्रत्येक वर्ष में, बैठकें अनिवार्य है।

ग्राम पंचायत के कार्य:-  ग्राम पंचायत द्वारा कृषि विस्तार सहित कृषि और बागवानी विकास, पशुपालन व डेयरी, कुक्कुट पालन व मत्स्यपालन, सामाजिक एवं फार्म वानिकी व लघु वन उपज, ईंधन व चारा, लघु सिंचाई, खादी व ग्रामीण कुटीर उद्योग, ग्रामीण पेयजल, सड़कें, ग्रामीण विद्युतीकरण, गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, प्राथमिक व प्रौढ़ व अनौपचारिक शिक्षा तथा पुस्तकालय, सांस्कृतिक क्रियाकलाप व बाजार मेलें, ग्रामीण स्वच्छता व लोक स्वास्थ्य व परिवार कल्याण, महिला व बाल विकास, कमजोर वर्गों का कल्याण, लोक वितरण व्यवस्था, सामुदायिक सम्पत्तियों, धर्मशालाओं, पोखरों पार्किंग, बूचड़खानों, लोक उद्यान, खेल मैदान का निर्माण एवं रख-रखाव, शराब की दुकानों का विनियमन इत्यादि विषयों से सम्बन्धित कार्य भी किये जाते हैं।

 

 प्रश्न 12. केंद्र और राज्य संबंधों की विस्तृत व्याख्या कीजिए ।

उत्तर:-

केन्द्र-राज्य विधायी सम्बन्ध (Legislative Relations):

संघ व राज्यों के विधायी सम्बन्धों का संचालन उन तीन सूचियों के आधार पर होता है जिन्हें संघ सूची (Union List),राज्य सूची (State List ) व समवर्ती सूची ( Concurrent List) का नाम दिया गया है। इन सूचियों को सातवीं अनूसूची में रखा गया है।

संघ सूची (Union List):- इस सूची के अंतर्गत  केंद्र सरकार क़ानून बनाती  है जो पूरे  भारत में मान्य होता है इस सूची में राष्ट्रीय महत्त्व के ऐसे विषयों को रखा गया है जिनके सम्बन्ध में सम्पूर्ण देश में एक ही प्रकार की नीति का अनुसरण करता है , इस सूची के सभी विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार संघीय संसद को प्राप्त है। इस सूची में कुल 97 विषय हैं जिनमें कुछ प्रमुख यह हैं- रक्षा, विदेशी मामले, युद्ध व सन्धि, देशीयकरण व नागरिकता, विदेशियों का आना-जाना, रेलवे, बन्दरगाह, हवाई मार्ग, डाक, तार, टेलीफोन व तार, मुद्रा निर्माण, बैंक, बीमा, खानें व खनिज आदि ।

राज्य सूची (State List):- इस सूची के अंतर्गत राज्य सरकार कानून बनाती है जो केवल राज्य में लागू होता है,  इस सूची में साधारणतया वे विषय रखे गए हैं, जो क्षेत्रीय महत्त्व के हैं। इस सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार सामान्यतया राज्यों की व्यवस्थापिकाओं को ही प्राप्त है।

 मूल संविधान के अनुसार इस सूची में 66 विषय थे, लेकिन 42वें संवैधानिक संशोधन (1976) से इस सूची के चार विषय शिक्षा, वन, जंगली जानवरों और पक्षियों की रक्षा तथा नाप-तोल, राज्य सूची से समवर्ती सूची में कर दिए गए हैं। राज्य सूची के कुछ प्रमुख विषय हैं: पुलिस, न्याय, जेल, स्थानीय स्वशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई और सड़कें, आदि ।

समवर्ती सूची (Concurrent List):- इस सूची अंतर्गत के  केंद्र एवं राज्य सरकार दोनों ही कानून बना सकती है,यदि इस सूची के विषय पर संघीय तथा राज्य व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानून परस्पर विरोधी हो, तो सामान्यतः संघ का कानून मान्य होगा। इस सूची में कुल 47 विषय हैं,

जैसे :फौजदारी विषय तथा प्रक्रिया, निवारक निरोध, विवाह और विवाह विच्छेद, दत्तक और उत्तराधिकार कारखाने, श्रमिक संघ, औद्योगिक विवाद, आर्थिक और सामाजिक योजना, सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा, पुनर्वास और पुरातत्त्व आदि ।

शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार:- संविधान  निर्माताओं ने केन्द्रीय सरकार को अत्यन्त शक्तिशाली बनाया है। वह किसी भी सूची के विषयों पर कानून बना सकती है। वह अवशिष्ट शक्तियों का उपभोग कर सकती है और राज्यपालों द्वारा राज्यों पर पूर्ण नियन्त्रण रखती है। उसकी आय के साधन अधिक हैं और वह राज्यों को ऋण भी दे सकती है।

 राज्यों की स्थिति नगरपालिकाओं के समतुल्य:- संघ एवं राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण इस प्रकार किया गया है कि राज्यों की स्थिति नगरपालिकाओं के समतुल्य हो गई है। जिस प्रकार नगरपालिकाएँ राज्य सरकारोंपर पूर्णतः निर्भर है, उसी प्रकार राज्य सरकारें भी सभी क्षेत्रों में संघ सरकार पर निर्भर है।

प्रशासन सम्बन्धी सम्बन्ध:

केन्द्र सरकार राज्यों को निर्देश दे सकती है:-केन्द्र को यह अधिकार दिया गया है कि वह राज्यों को यह निर्देश दे सके कि उन्हें अपनी कार्यकारी शक्ति का उपयोग किस प्रकार करना चाहिए । राष्ट्रीय व सैनिक महत्त्व के मार्गों के पुलों आदि का निर्माण साधारणतया केन्द्रीय सरकार ही करती है, परन्तु केन्द्र को यह अधिकार प्राप्त है कि इस प्रकार के मार्गों के निर्माण व उसके उचित रख-रखाव के लिए वह राज्यों को आवश्यक निर्देश दे सके। इसी प्रकार रेलमार्गों तथा रेलगाड़ियों की सुरक्षा के लिए भी निर्देश जारी किए जा सकते हैं।

 

प्रश्न 13. उच्चतम न्यायालय की मूल शक्तियों और क्षेत्राधिकार का का वर्णन करिए।  यह किस प्रकार भारत के संघीय मामलों का निपटाराकरता है?

उत्तर- उच्चतम न्यायालय, एक देश के न्यायिक प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है जो उच्चतम यानी सर्वोच्च स्तर की न्यायिक  प्राधिकरणों को सुनने और निर्णय देने का दायित्व रखता है। उच्चतम न्यायालय सामान्यत: किसी देश में अन्य न्यायिक स्तरों के निर्णयों के खिलाफ अपील की सुविधा प्रदान करता है और विशिष्ट मामलों में कानूनी मुद्दों पर निर्णय देता है।

उच्चतम न्यायालय की मूल शक्तियों और क्षेत्राधिकार/संघीय मामलों का निपटारा:-

संवैधानिक मामलों में अपील – संवैधानिक मामलों में उच्चतम न्यायालय में उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील की जा सकती है।

संविधान के अनुच्छेद 132 की व्यवस्था के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के किसी निर्णय के संवैधानिक मामलों में अपील उस समय सुनता है जब उच्च न्यायालय इस बात का प्रमाण-पत्र  दे कि इस विवाद में संविधान के किसी अनुच्छेद या धारा की व्याख्या से सम्बन्धित प्रश्न निहित है। सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी अपनी ओर से ऐसे मामलों की अपील सुनने की व्यक्ति को अनुमति दे सकता है, बशर्ते कि न्यायालय यह अनुभव करे कि मामले में कोई संवैधानिक प्रश्न निहित है।

दीवानी अपीलें

दीवानी मामलों से संबंधित जिन मुकदमों में उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रमाण–पत्र दे दिया जाता है कि मामला उच्चतम न्यायालय में सुनवायी के योग्य है तो ऐसे मुकदमों में उच्चतम न्यायालय में भी अपील प्रस्तुत की जा सकती है। इसके साथ ही साथ किसी विशिष्ट परिस्थिति में विशेष अनुमति लेकर याचिका भी प्रस्तुत की जा सकती है।

फौजदारी अपीलें

फौजदारी मामला:- फौजदारी मामले किसी अपराधिक कृत्य से संबंधित होते हैं। यह अपराध सार्वजनिक गलती अथवा अपराध होता है। चोट पहुंचाना अथवा जख्मी करना, चोरी, डकैती, हत्या, अपहरण आदि इसके कुछ उदाहरण हैं । अपराध करने वाले व्यक्ति को अभियुक्त कहा जाता है।

  • संविधान के अनुच्छेद 134 की व्यवस्था के अनुसार उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में निम्नांकित फौजदारी मामलों की अपील की जा सकती है
  • जब किसी मुकदमे में उच्च न्यायालय के किसी अधीनस्थ न्यायालय ने अभियुक्त को निर्दोष मानकर रिहा कर दिया हो, परन्तु उच्च न्यायालय द्वारा उसे मृत्युदण्ड दिया गया हो।
  • जब उच्च न्यायालय ने किसी मुकदमे को अपने अधीनस्थ न्यायालय से अपने पास मँगवाकर अभियुक्त को मृत्युदण्ड दिया हो।

जब उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रमाणित कर दिया गया हो कि विवाद सर्वोच्च न्यायालय में अपील किए जाने योग्य है।

विशेष अपीलें

संविधान के अनुच्छेद 135 की व्यवस्था के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार दिया गया है कि सैनिक न्यायालय को छोड़कर भारत स्थित किसी भी न्यायालय द्वारा किसी भी विवाद में दिए गए निर्णय के विरुद्ध अपील करने की विशेष अनुमति प्रदान कर सकता है। यह. अनुमति केवल उन्हीं अभियोगों के सम्बन्ध में दी जा सकती है जिनके निर्णयों से सर्वोच्च न्यायालय को यह अनुभव हो कि एक पक्ष के साथ घोर अन्याय किया गया है और अभियोग पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।

परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार

संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार भी प्रदान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को प्रतीत हो कि विधि या तथ्य का ऐसा कोई प्रश्न उत्पन्न हुआ है जो सार्वजनिक महत्त्व का है, तो वह उक्त प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श माँग सकता है। किन्तु सर्वोच्च न्यायालय पर संवैधानिक दृष्टि से ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि उसे परामर्श देना ही पड़ेगा।

संविधान के संरक्षक या न्यायिक पुनरावलोकन सम्बन्धी क्षेत्राधिकार

संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के संरक्षक का कार्य भी प्रदान किया है। इसका तात्पर्य यह है कि सर्वोच्च न्यायालय को कानूनों की वैधता की जाँच करने का अधिकार प्राप्त है। इसे ही ‘न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार’ कहते हैं। इस अधिकार के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय को संघ सरकार या राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित ऐसी विधियों की जाँच करने का अधिकार प्राप्त है जो संविधान के विरुद्ध हैं अर्थात् संविधान के विरुद्ध निर्मित विधियों को सर्वोच्च न्यायालय अवैध घोषित कर सकता है। इस प्रकार अपने इस अधिकार का प्रयोग कर सर्वोच्च न्यायालय संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करता है।

पुनर्विचार सम्बन्धी क्षेत्राधिकार

संविधान के अनुच्छेद 138 की व्यवस्था के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय अपने द्वारा दिए गए आदेशों एवं निर्णयों पर पुनर्विचार कर सकता है और आवश्यकतानुसार उनमें परिवर्तन या संशोधन भी कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसा तब ही किया जाता है जब उसे ऐसा प्रतीत हो कि उसके द्वारा दिए गए निर्णय से किसी पक्ष के प्रति अन्याय हुआ है अथवा उस विवाद के सम्बन्ध में अन्य कोई तथ्य प्रकाश में आए हों।

अभिलेख न्यायालय

संविधान के अनुच्छेद 129 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय भी है। इसकी समस्त कार्यवाहियाँ व निर्णय लिखित रूप में होते हैं और प्रकाशित किए जाते हैं। इन्हें अभिलेख के रूप में रखा जाता है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय साक्ष्य के रूप में अत्यधिक मूल्यवान होते हैं, जिन्हें समस्त अधीनस्थ न्यायालय कानूनी मान्यता प्रदान करतेहैं

अन्य अधिकार

  • वह अपने अधीनस्थ न्यायालयों के कार्यों की जाँच कर सकता है।
  • अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की नियुक्ति और सेवा सम्बन्धी शर्ते निर्धारित करने के अतिरिक्त उसे उनकी पदोन्नति एवं पदच्युत करने की शक्ति भी प्राप्त है।
  • न्यायालय की अवमानना करने वाले किसी भी व्यक्ति को दण्डित करने की शक्ति भी सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है।
  • इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय को संघीय व्यवस्था और मौलिक अधिकारों के संरक्षक तथा भारतीय संघ के अन्तिम अपीलीय न्यायालय के रूप में व्यापक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं।
  • यह राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के निर्वाचन के सम्बन्ध में किसी प्रकार के विवाद का निपटारा करता है। इस सम्बन्ध में यह मूल, विशेष एवं अन्तिम व्यवस्थापक है।
  • उच्च न्यायालयों में लम्बित पड़े मामलों को यह मंगवा सकता है और उनका निपटारा कर सकता है। यह किसी लम्बित मामले या अपील को एक उच्च न्यायालय से दूसरे में स्थानान्तरित भी कर सकताहै।

 

 प्रश्न 14. आप इस बात से कितना सहमत हैं कि जनहित याचिका गरीबों की सहायता के लिये सफ़ल सिद्ध हुई है ? कारण बताइए |

उत्तर-

जनहित याचिका  का अर्थ:- जनहित याचिका वह याचिका है, जो कि लोगोंके सामूहिक हितों के लिए न्यायालय में दायर की जाती है । कोई भी व्यक्ति जन हित में या फिर सार्वजनिक महत्व के किसी मामले के विरूद्ध, जिसमें किसी वर्ग या समुदाय के हित या उनके मौलिक अधिकार प्रभावित हुए हों, जनहित याचिका के जरिए न्यायालय की शरण ले सकता है ।

जनहित याचिकाएँ आमतौर पर सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय, राजनैतिक या मानवाधिकारों से संबंधित मुद्दों पर दायित्व और पर्याप्त उपयोग के लिए उठाई जाती हैं। ये याचिकाएँ विशेष रूप से ऐसे मामलों में उठाई जाती हैं जिनका सार्वजनिक महत्व होता है और जिनमें बड़े वर्ग के लोगों के हित को संरक्षित किया जाना चाहिए।

कारण:-

मुझे यह सहमति है कि जनहित याचिकाएँ गरीबों की सहायता के लिए सफलता प्राप्त कर सकती हैं,क्योंकि ये याचिकाएँ सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकती हैं। निम्नलिखित कुछ कारणों से जनहित याचिकाएँ गरीबों की सहायता करने में सफल हो सकती हैं:

सार्वजनिक ध्यान:जनहित याचिकाएँ सामाजिक और मानवाधिकारों से संबंधित मुद्दों को सार्वजनिक ध्यान में लाती हैं, जिससे वे गरीब और सामाजिक रूप से पिछड़े हुए व्यक्तियों के हित को प्रमोट कर सकती हैं।

कानूनी निर्णय:यदि जनहित याचिका गरीबों के लिए सफल होती है, तो यह कानूनी निर्णयों के माध्यम से सामाजिक न्याय की प्राप्ति करने में मदद कर सकती है।

संविधानिक माध्यम:जनहित याचिकाएँ आमतौर पर संविधानिक मुद्दों को उठाती हैं और संविधान में स्थापित मूलभूत अधिकारों की सुरक्षा करने के लिए माध्यम बन सकती हैं।

जागरूकता और सहयोग: जनहित याचिकाएँ गरीबों के हित के लिए समाज में जागरूकता पैदा कर सकती हैं और लोगों को उनके अधिकारों की जानकारी और सहयोग प्रदान कर सकती हैं।

सामाजिक परिवर्तन:जनहित याचिकाएँ गरीबों के प्रति समाज के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने में मदद कर सकती हैं, जिससे उन्हें दरिद्रता और असमानता से निजात मिल सकती है।लेकिन इसके साथ ही, जनहित याचिकाएँ सफल होने के लिए कई चुनौतियों का सामना करती हैं, जैसे कि न्यायिक प्रक्रिया की दीर्घावधि, स्थानिक प्रशासनिक प्रक्रियाएँ, और आम जनता की अपनी मुद्दों के लिए आवश्यक संसाधन की कमी।

जनहित याचिकाएँ देश की सोसाइटी में सकारात्मक परिवर्तन को प्रोत्साहित करने और उसके लोगों के हित को संरक्षित करने का माध्यम बनती हैं। इन याचिकाओं का माध्यमिक उद्देश्य सामाजिक न्याय और समरसता को सुनिश्चित करना होता है।

 

प्रश्न 15.न्यायिक सक्रियता किस प्रकार मौलिक अधिकारों का संरक्षण करती है?

उत्तर-

न्यायिक सक्रियता

न्यायिक सक्रियता का अर्थ न्यायपालिका द्वारा विधानपालिका या अन्य संस्था के अधिकार क्षेत्र में आने वाले उन कार्यों में हस्तक्षेप करना है जो न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में न आते हो अर्थात् न्यायपालिका द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर विधानपालिका, कार्यपालिका या अन्य सरकारी अधिकारी को दिए गए निर्देश न्यायिक सक्रियता कहलाते है । संक्षेप में, न्यायपालिका द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र में रहकर सक्रिय भूमिका निभाना न्यायिक सक्रियता नहीं है। अपितु अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर ऐसे कार्य करना है जो सरकार के अन्य अंगों के निर्धारित अधिकार क्षेत्र में होते हैं।

न्यायिक सक्रियता  द्वारा मौलिक अधिकारों का संरक्षण

न्यायिक सक्रियता के आगमन के बाद से, यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का मुख्य साधन बन गया है । यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 का पूरक है जो क्रमशः सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्रदान करता है।

न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से पूर्ण रूप से जुड़ी है। इसने मौलिक अधिकारों के विषय क्षेत्र को भी काफी विस्तृत कर दिया है। न्यायपालिका ने जीने के अधिकार का अर्थ यह लिया है-सम्मानपूर्ण जीवन, शुद्ध वायु, शुद्ध पानी तथा शुद्ध वातावरण में जीने का अधिकार।

इसीलिए न्यायपालिका में पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने, प्रदूषण को रोकने, नदियों को साफ-सुथरा रखे जाने, उद्योगों को आवासीय क्षेत्र से बाहर निकाले जाने, आवासीय क्षेत्रों से दुकानों को हटाए जाने आदि के कितने ही आदेश दिए हैं। इस प्रकार न्यायपालिका ने न्यायिक सक्रियता द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को काफी व्यापक बनाया है।

मौलिक अधिकारों का उत्थान (विकास):- न्यायिक सक्रियता से मौलिक अधिकारों को व्यापक औरप्रभावकारी बनाने का प्रयास किया जाता है। न्यायपालिका ने सक्रियता का परिचय देकर कार्यपालिका और विधायिका को मौलिक अधिकारों के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास करने का सुझाव दिया है:-

  • न्यायिक सक्रियता से मूल अधिकारों तथा मानव अधिकारों के क्षेत्र का विस्तार होता है तथा इनका जनता तक पर्याप्त पहुंच संभव होता है।
  • न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका तक समाज के वंचित वर्गों की पहुंच में वृद्धि होती है ।
  • न्यायपालिका के प्रति जनता के विश्वासों में वृद्धि होती है।
  • न्यायिक सक्रियता विधि के शासन, निष्पक्षता और पारदर्शिता, प्रशासन में भ्रष्टाचार को कम करने आदि मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • नागरिकों के अधिकारों को बनाए रखने और देश की संवैधानिक और कानूनी व्यवस्था के संरक्षण में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को न्यायिक सक्रियता के रूप में जाना जाता है।

 

प्रश्न 16.संसदात्मक शासन प्रणाली से आप क्या समझते हैं?

उत्तर-

भारत में संसदात्मक शासन प्रणाली है,  संसद केन्द्र सरकार का विधायी अंग है। भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संसद एक विशिष्ट व केन्द्रीय स्थान रखती है। भारत का संविधान संसदीय स्वरूप की व्यवस्था करता है । संसदीय सरकार को ‘ कैबिनेट सरकार’ या ‘उत्तरदायी सरकार” या ‘सरकार का वेस्टमिंस्टर स्वरूप’ भी कहते हैं तथा यह ब्रिटेन, जापान, कनाडा, भारत आदि में प्रचलित है।

अनुच्छेद 79 के प्रावधान के तहत, भारत की संसद के मुख्य तीन घटक हैं- राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्य सभा। इनमें लोकसभा भंग किए जाने की विषयवस्तु है, राज्य सभा एक स्थायी सदन है जिसको भंग नहीं किया जा सकता है।

राष्ट्रपति

भारत के राष्ट्रपति भारतीय संसद के अभिन्न अंग है ।भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का कार्यकारी अधिकारी होता है, जबकि प्रधान मंत्री वास्तविक कार्यकारी अधिकारी होता है। इसलिए, राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख होता है और प्रधान मंत्री सरकार का मुखिया होता है।

अनुच्छेद 74 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिपरिषद का प्रावधान है कि वह राष्ट्रपति को उसके कर्तव्यों के पालन में सहायता करे और उसे सलाह दे। इस प्रकार किया गया प्रस्ताव राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी होता है।

लोक सभा

लोक सभा संसद का निम्न सदन है। यह जनता का सदन भी कहा जाता है। जनता प्रत्यक्ष रूप से लोक सभाके सदस्यों का चुनाव करती है। लोक सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या अभी 545 है। इसमें 530 सदस्य राज्यों से चुनकर आते हैं जबकि 20 सदस्य केन्द्र शासित प्रदेशों से चुनकर आते हैं। 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाते हैं।2 सदस्य आंग्ल भारतीय समुदाय से आते हैं। इन्हें राष्ट्रपति द्वारा इसलिये मनोनीत किया जाता है ताकि इनका प्रतिनिधित्व भी लोक सभा में हो सके।

104 वें संविधान संशोधन (2020) अधिनियम ने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एंग्लो-इंडियन के लिए सीटों के आरक्षण को समाप्त कर दिया और एससी और एसटी के लिए आरक्षण को दस साल तक बढ़ादी।

लोकसभा का विघटन

प्रधानमंत्री के प्रस्ताव पर राष्ट्रपति हाउस ऑफ कॉमन्स (लोकसभा) को भंग कर सकता है। प्रधान मंत्री सिफारिश कर सकते हैं कि राष्ट्रपति अपने कार्यकाल की समाप्ति से पहले पीपुल्स चैंबर को भंग कर दें और एक नया चुनाव कराएं। इसका मतलब है कि कार्यकारी शाखा को विधायिका को संसदीय प्रणाली में भंग करने का अधिकार है।

राज्य सभा

संविधान के अनुसार राज्य सभा एक उच्च सदन है। यह राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है। राज्य सभा की अधिकतम संख्या 250 है जिसमें 12 सदस्यों को राष्ट्रपति मनोनीत करता है। ये 12 सदस्य साहित्य कला, विज्ञान एवं समाज सेवा में अनुभव प्राप्त व्यक्ति होते है। बाकि के सदस्य राज्यों की विधानसभा द्वारा चुनकर भेजे जाते है ।

दोहरी सदस्यता

मंत्री विधायिका और कार्यपालिका के सदस्य होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि कोई व्यक्ति संसद का सदस्य नहीं है तो वह मंत्री नहीं हो सकता। संविधान के अनुसार यदि मंत्री लगातार छह महीने तक संसद सदस्य के रूप में काम नहीं करते हैं तो वे मंत्री के रूप में काम नहीं करेंगे।

प्रधानमंत्री का नेतृत्व

सरकार की इस प्रणाली में प्रधान मंत्री एक प्रमुख भूमिका निभाता है। वह मंत्रिपरिषद का नेता, संसद का नेता और सत्ताधारी दल का नेता होता है। इन क्षमताओं के बीच, यह सरकार के संचालन में एक महत्वपूर्ण और बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

सामूहिक जिम्मेदारी

यह संसदीय सरकार का मूल सिद्धांत है। मंत्री सामूहिक रूप से संपूर्ण संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं, विशेषकर लोकसभा  के प्रति। वे एक टीम की तरह काम करते  हैं।

 

प्रश्न 17. भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में प्रधानमंत्री की  शक्तियों तथा भूमिका पर प्रकाश डालिए?

अथवा

प्रधानमंत्री की दल एवं संसद में भूमिका का अध्ययन कीजिए।

अथवा

 भारतीय संसदीय लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री के मध्य संबंधों पर आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।

उत्तर-

प्रधानमन्त्री, मंत्रिपरिषद् के संवैधानिक प्रमुख एवं नेता होते हैं। वे संसद एवं अन्य मंचों पर मंत्रिपरिषद् का प्रतिनिधित्व करते है। मंत्रियों की नियुक्ति एवं मंत्रालयों के आवण्टन के अलावा, मंत्रिमण्डलीय सभाएँ, कैबिनेट की गतिविधियाँ और सरकार की नीतियों पर भी प्रधानमन्त्री का पूरा नियंत्रण होता है।

प्रधानमंत्री की  शक्तियों तथा भूमिका/ प्रधानमंत्री की दल एवं संसद में भूमिका

  1. मंत्रिपरिषद का गठन: मंत्रिपरिषद का गठन प्रधानमंत्री की नियुक्ति के साथ प्रारम्भ होता है। राष्ट्रपति को अपने कार्यों के अभ्यास में सहायता और सलाह देने के लिए प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद होती है। प्रधान मंत्री को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है, जो प्रधान मंत्री की सलाह पर अन्य मंत्रियों को भी नियुक्त करता है।
  2. विभागों का वितरण:मंत्रिपरिषद का निर्माण करने के पश्चात् मन्त्रियों के मध्य विभागों का बँटवाराकरता है। वह मंत्री की शिक्षा, योग्यता एवं अनुभव को ध्यान में रखकर विभागों का बँटवारा करता है। जो मंत्री जिस-जिस विभाग के लिए योग्य होता है, उसे वही विभाग दिया जाता है। प्रधानमंत्री जो विभाग अपने पास रखना चाहे रख सकता है। प्रधानमंत्री अपनी इच्छानुसार जब चाहे मंत्रियों के विभागों में परिवर्तन कर सकता है। मंत्रिपरिषद का अन्त भी प्रधानमंत्री की इच्छा पर ही निर्भर करता है। संसदीय शासन में प्रधानमंत्री के त्यागपत्र को सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद का त्यागपत्र समझा जाता है।
  3. प्रधानमंत्री तथा आपातकाल: राष्ट्रपति को प्राप्त आपातकालीन शक्तियों का वास्तविक प्रयोग प्रधानमंत्री ही करता है। युद्ध प्रारम्भ करने तथा बन्द करने के सम्बन्ध में निर्णय प्रधानमंत्री द्वारा ही लिया जाता है। युद्ध में जय एवं पराजय का उत्तरदायित्व प्रधानमंत्री का होता है। विजय प्राप्ति पर देश और विदेशों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती है अन्यथा उसकी आलोचना की जाती है जैसे- सन् 1962 के बर्बरतापूर्ण चीनी आक्रमण के समय प्रधानमंत्री नेहरू ने संकटकालीन शक्तियों का प्रयोग किया था, लेकिन युद्ध में सैनिकों की पराजय के कारण उनकी तीव्र आलोचना हुई थी।

इसके विपरीत सन् 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत की विजय से श्री शास्त्री जी की अत्यधिक प्रशंसा हुई थी। इसी तरह सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी श्रीमती गाँधी के व्यक्तित्व से जनता बहुत प्रभावित हुई थी और श्रीमती गाँधी ने विश्व में प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। इसके अतिरिक्त किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने और समाप्त होने के सम्बन्ध में भी व्यावहारिक रूप से प्रधानमंत्री द्वारा ही निर्णय लिया जाता है।

राष्ट्र के नेता के रूप में- प्रधानमंत्री राष्ट्र का नेता होता  है। साधारणतः भारत में चुनाव  प्रधानमंत्री के नाम पर लड़े जाते हैं। उदाहरणस्वरूप 1980 में इंदिरा गाँधी ने चुनाव जीता, 1998 में लोकसभा चुनाव में यह नारा दिया गया अबकी  बारी अटल बिहारी’, इसी तरह 2014 के लोकसभा चुनावों में नारा था ‘अबकी बार मोदी सरकार’।

प्रधानमंत्री तथा नीति निर्धारण – भारत की विदेश नीति एवं घरेलू नीति के निर्माता के रूप में प्रधानमंत्री की स्थिति अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल का प्रमुख प्रवक्ता होने के साथ-साथ नीति निर्माता भी है। प्रधानमंत्री कार्यालय देश के नीति निर्धारण का प्रमुख स्रोत है।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण, संविधान संशोधन आदि जितने भी क्रांतिकारी फैसले लिए गए, वे सभी मुख्यतः प्रधानमंत्री द्वारा ही लिए गए फैसले थे।समान्यतः प्रधानमंत्री सभी महत्त्वपूर्ण नीतियों का निर्धारण करते हैं। इन सभी नीतियों में वह सरकार के प्रमुख प्रवक्ता होते हैं। वह महत्त्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लेते हैं। राष्ट्र के नाम संदेश में वह जनता के समक्ष अपनी सरकार की नीतियों को प्रस्तुत करते हैं।

प्रधानमंत्री का दल  एवं भूमिका:

संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री लोकसभा का सदस्य होता है। बहुमत दल का नेता होने के कारण उसे अन्य राजनीतिक दलों अर्थात विपक्षी नेताओं के साथ वैचारिक भिन्नता तथा प्रधानमंत्री होने के कारण स्वभावतः शासकीय दबाव का सामना करना पड़ता है।

संसद के पटल पर प्रस्तुत किए जाने वाले विधेयक, प्रस्ताव एवं वार्षिक बजट को निर्धारित करने में प्रधानमंत्री की अहम भूमिका होती है।

इसी रह, प्रश्नकाल, विश्वास मत प्रस्ताव या अविश्वास प्रस्ताव इत्यादि के समय प्रधानमंत्री को वास्तविक कार्यपालिका और सत्ताधारी दोनों की भूमिकाओं में प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता है।

किसी भी प्रधानमंत्री के लिए विपक्ष के आरोपों एवं आलोचनाओं का सामना करना कठिन कार्य होता है। प्रधानमंत्री की भूमिका के निर्वहन में उसे अपने स्वयं के दल, सहयोगी एवं विपक्षी दलों के सांसदों की क्षेत्रीय तथा व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान भी करना पड़ता है।

प्रधानमंत्री अपने दल का घोषित तथा अघोषित सर्वमान्य नेता होता है। आम चुनाव प्रधानमंत्री का चुनाव है। वह उम्मीदवारों के चयन का अधिकार रखता है। दल के सदस्य प्रधानमंत्री के मार्गदर्शन में ही राजनीतिक गतिविधियों निश्चित करते हैं। दल के कार्यक्रमों को उसका समर्थन प्राप्त होता है। प्रधानमंत्री की संपूर्ण शक्ति इस बात पर आधारित है कि वह अपने दल में महत्त्वपूर्ण स्थान, दलीय नेतृत्व को सक्षम तथा दल के बहुमत का समर्थन प्राप्त कर सकने में सक्षम है या नहीं है? यदि उसका दल संसद में अपना बहुमत खो देता है अथवा उसके विरुद्ध विद्रोह कर दे तो उसकी समस्त शक्तियाँ शून्य हो जाती हैं।

प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति में सम्बन्ध:

  • प्रधानमंत्री, मंत्रीपरिषद का नेता होता है। राष्ट्रपति केवल नाममात्र का शासक होता है राष्ट्रपति से ज्यादा अधिकार प्रधानमंत्री के पास होते है जबकि प्रमुख कार्यकारी शक्तियां प्रधानमंत्री में निहित होती हैं। मंत्री नियुक्त करने हेतु अपने दल के सदस्यों के नाम राष्ट्रपति को सुझाता है।
  • भारतीय संविधान के अनुसार, प्रधानमन्त्री केंद्र सरकार के मंत्रिपरिषद् का प्रमुख और राष्ट्रपति का मुख्य सलाहकार होता है। वह भारत सरकार के कार्यपालिका का प्रमुख होता है और सरकार के कार्यों को लेकर संसद के प्रति जवाबदेह होता है।
  • लोकसभा के अध्यक्ष के साथ मिलकर बैठकों की कार्य सूची तैयार करने तथा सदन में व्यवस्था स्थापित करने में भी प्रधानमंत्री का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । प्रधानमंत्री के परामर्श से ही राष्ट्रपति लोकसभा को भंग करता है । संविधान के अनुच्छेद 85 (2) के अनुसार प्रधानमंत्री लोकसभा को भंग करने की अनुशंसा राष्ट्रपति से कर सकता है और आम चुनाव ‘की मांग करता है। प्रधानमंत्री के पास यह एक ऐसा हथियार है, जिससे वह लोक सभा के सदस्यों को डरा धमका सकता है और लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव के नाम पर प्रधानमंत्री को मर्यादित कर सकती है।

 

प्रश्न 18.  निम्नलिखित पर टिप्पणी कीजिए।

  1. राज्य सभाऔर लोकसभा की शक्तियां/कार्य
  2. पंचायती राज कीचुनौतियाँ
  3. गठबंधन राजनीति के दौर में प्रधानमंत्री की भूमिका
  4. संसदीय विशेषाधिकार
  5. रिट

उत्तर-

1. राज्य सभाऔर लोकसभा की शक्तियां/कार्य

राज्य सभा:

राज्य सभा भारतीय संसद की ऊपरी प्रतिनिधि सभा है। लोकसभा निचली प्रतिनिधि सभा है। राज्यसभा में 245 सदस्य होते हैं। जिनमे 12 सदस्य भारत के राष्ट्रपति के द्वारा नामांकित होते हैं।

विधायी शक्तियां (Legislative Powers)

लोकसभा के साथ राज्यसभा भी विधि निर्माण सम्बन्धी कार्य करती है। संविधान द्वारा अवित्तीय विधेयकों के सम्बन्ध में लोकसभा और राज्यसभा दोनों को बराबर शक्तियां प्रदान की गई हैं। अवित्तीय विधेयक दोनों सदनों में से किसी भी सदन में पहले प्रस्तावित किया जा सकता है और दोनों सदनों से पारित होने के बाद ही राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए जाता है। सभी महत्वपूर्ण विधेयक लोकसभा में ही प्रस्तावित किये जाते हैं|

संविधान संशोधन की शक्ति(Power To Amend Constitution)

संविधान संशोधन के सम्बन्ध में राज्यसभा को लोकसभा के समान शक्ति प्राप्त है। संशोधन प्रस्ताव तभी स्वीकृत  माना जाएगा, जब संसद के दोनों सदनों द्वारा अलग-अलग अपने कुल बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से पारित कर दिया जाए। संशोधन प्रस्ताव पर संसद के दोनों सदनों में असहमति होने पर संविधान में संशोधन का प्रस्ताव मान्य नहीं होगा|

वित्तीय शक्ति (Financial Strength)

राज्यसभा को कुछ वित्तीय शक्ति प्राप्त है| इस सम्बन्ध में संविधान द्वारा राज्यसभा को लोकसभा की तुलना में निर्बल स्थिति प्रदान की गयी है। संविधान के मुताबिक वित्त विधेयक पहले लोकसभा में ही प्रस्तावित किये जायेंगे। लोकसभा से स्वीकृत होने पर वित्त विधेयक राज्यसभा में भेजे जायेंगे, जिसके द्वारा अधिक से 14 अधिक दिन तक इस विधेयक पर विचार किया जा सकेगा। राज्यसभा वित्त विधेयक के सम्बन्ध में अपने सुझाव लोकसभा को दे सकती है, परन्तु यह लोकसभा की इच्छा पर निर्भर है, कि उन प्रस्तावों को मानता है अथवा नहीं।

लोकसभा:

लोकसभा की ताकत 545 सदस्य हैं, जिसमें से 530 सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, 13 केंद्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करते हैं।भारतीय संसदीय प्रणाली को 3 भागों में बांटा गया है। पहला राज्यसभा, दूसरा लोकसभा और तीसरा प्रेसीडेंट। लोकसभा को आम जनता का सदन भी कहा जाता है। 25 अक्‍टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक पहले आम चुनावों के बाद 17 अप्रैल 1952 को सर्वप्रथम लोक सभा का गठन हुआ था।

विधायी कार्य- संसद का मुख्य कार्य जनता के सामाजिक कल्याण के लिए कानूनों का निर्माण करना है। यह किसी भी विषय पर कानून बना सकती है। साधारण विधेयक संसद के दोनों सदनों में से किसी में भी प्रस्तावित किया जा सकता है, लेकिन दोनों सदनों से पारित होना अनिवार्य है।

संशोधन संबंधी कार्य- लोकसभा राज्य सभा के साथ संविधान में संशोधन कर सकती है और संविधान में संशोधन संबंधी विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तावित किया जा सकता है।

कार्यपालिका पर नियंत्रण- कार्यपालिका के निचले सदन के प्रति उत्तरदायी होने के कारण लोकसभा एडमिनिस्ट्रेशन पर अपना नियंत्रण बनाए रखती है। अगर कार्यपालिका लोकसभा का विश्वास लेने में सक्षम नहीं है तो उसे त्याग पत्र देना पड़ता है।

 

2. पंचायती राज की चुनौतियां

पंचायती राज व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत शक्ति का विकेन्द्रीकरण किया जाता है तथा सत्ता तथा प्रशासनिक शक्तियों को विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है। शक्ति का विकेन्द्रीकरण किया जाता है ताकि विकास योजनाओं को राष्ट्र के प्रत्येक गाँव में लागू  किया जा सके ।

चुनौतियां:

  1. जन सहयोग की कमी : पंचायती राज प्रणाली द्वारा कार्यान्वित होने वाली योजनाओं को पूर्ण रूपेण क्रियान्वयन व अनुपालन के लिए जन सहयोग की आवश्यकता होती है। चाहे वे ग्राम पंचायत की योजना हो जिला परिषद की। राज्य व केन्द्र सरकार द्वारा प्रस्तावित योजना को पंचायती राज व्यव्स्था से संबंधित अधिकारियों के माध्यम से पूर्ण तो किया जाता है। लेकिन इन योजनाओं के क्रियान्वयन में जन सहयोग के आभाव के कारण योजनाओं के सफल क्रियान्वयन में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पंचवर्षीय योजनाएं एवं वार्षिक योजनाएं जन सहयोग के बिना सफल नहीं हो सकती।
  2. विकासात्मक योजनाओं के क्रियान्वयन में अनियमितता: पंचायती राज एवं जिला नियोजन परिषदों में अधिकांश राशि योजनाकारों की जेब में चली जाती है एवं शेष बची हुई राशि प्रशासकीय अधिकारियों एवं राजनैतिक पदाधिकारियों की जेबों में चली जाती है और बची हुई राशि को विकासात्मक कार्यों में लगाया जाता है, जो लगभग 15 प्रतिशत ही होती है। इस बची राशि के आधार पर विकास की योजना एवं कार्यक्रम बनाये जाते हैं, और राशि आधे कार्यक्रम में समाप्त हो जाती है।
  3. आर्थिक संसाधन का अभाव : ग्राम पंचायत हो या जिला परिषद, उनके पास धन की समस्या शुरू से ही रही है। इन संस्थाओं को स्वतंत्र आर्थिक स्रोत या तो दिये नहीं गये या फिर जो भी दिए गये वे अर्थ शून्य हैं। परिणामत: शासकीय अनुदानों पर ही जीवित रहना पड़ता है।
  4. जनसंवाद का अभाव: जनसंवाद के कारण ग्रामीण विकास की योजनाओं को शासन ग्रामीण जनता तक पहुंचाने में असफल रही है, जिससे ग्रामीण जनता को योजनाओं का सही ढंग से पता ही नहीं लगता और वे योजनाएं बनकर क्रियान्वित कर दी जाती है तथा ग्रामीण गरीब, अशिक्षित व असहाय जनता योजना के आने के इन्तजार में अपना सारा समय व्यर्थ में बर्वाद कर देती है एवं वे योजनाओं के लाभ से वंचित रह जाते हैं ।
  5. योग्य प्रशासकों एवं विशेषज्ञों की चुनौती : योग्य प्रशासकों एवं विशेषज्ञों के अभाव में नियोजन कार्य असफल हो जाता है। पंचवर्षीय योजनाओं के समय में विशेषज्ञ व प्रशासक प्रशासन में आये लेकिन जो स्थान उन्हें मिलना चाहिए वह स्थान उन्हें नहीं मिल पाया। अत: वे अपने आप को निराश व हतास अनुभव करते है एवं साथ-साथ उनका कार्य करने का मनोबल निरन्तर गिरता जाता है तथा वे कार्यरत स्थान को छोड़कर अन्यत्र स्थानों में कार्य शुरू कर देते हैं। यदि संयोग से कोई दक्ष प्रशासक या विशेषज्ञ अपनी इमानदारी, लगन, परिश्रम के साथ विकासात्मक कार्य करने का प्रयास भी करता है तो उसमें राजनीतिक एवं हाई कमान के दबावों से दबाव में आकर वह विकासात्मक कार्य चाह कर भी नहीं कर सकता जिससे दिन-ब-दिन प्रशासकों एवं विशेषज्ञों का अभाव बढ़ता ही जा रहा है ।
  6. सही व विश्वासनीय तथ्यों की कमी : बिना तथ्यों एवं आकड़े के न कोई योजना बन सकती और न ही कोई वास्तविक कल्पना की जा सकती क्योंकि प्रशासन के पास आकड़ों का निराभाव है। आकड़े तो सभी विषयों में मिल जाते हैं परंन्तु वे सही व विश्वासनीय नहीं प्राप्त होते है। उदाहरणार्थ – विधवा पेंशन योजना अथवा ग्रामीण आवास योजना। जब तक प्रशासन को सही व विश्वासनीय तथ्यों के आकड़े नहीं प्राप्त होंगें तब तक ग्रामीण विकास के विकासात्मक कार्यों की योजना बनाना एवं उनके क्रियान्वयन व वास्तविक परिणामों की कल्पना करना व्यर्थ होगा ।
  7. अधिकारियों व पदाधिकारियों के बीच संबंधों की चुनौती : जहां नीति निर्माण होता है तथा समन्वयन किया जाता है जिले के विकास कार्यक्रमों में ब्रेक का कार्य करता है, जिससे विकास कार्य शिथिल पड़ जाते हैं। विकास की योजनाओं के निर्माण का कार्य एवं क्रियान्वयन में कठिनाइयां आती हैं एवं विकास यथोचित नहीं हो पाता है। वास्तव में यह प्रत्यक्ष अवलोकन से स्पष्ट हुआ कि संबंधों के आभाव के कारण विभागीय तनाव, मनमुटाव, ईर्ष्‍या की भावना का विकास होता है। जिससे आपसी सहयोग व समन्वयन का अभाव दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाता है।

चुनौतियों का समाधान

  1. अधिकारियों एवं आम जनता को योजनाओं के सफल क्रियान्वयन में सहयोग देना चाहिए, ताकि ग्रामीण विकास के लिए प्रशासन को सहयोग मिल सके।
  2. विकासात्मक कार्यों को करने के लिए प्रशासकों एवं विशेषज्ञों को स्वतंत्रता होने से वे अपने अनुभवों एवं कार्यकुशलता के आधार पर कार्य कर सकेगें।
  3.  संबंधित समस्या के वास्तविक आकड़े व तथ्य प्रशासन को प्राप्त कराने में संबंधित व्यक्ति को सहयोग प्रदान करना चाहिए।

                                                

3. गठबंधन राजनीति के दौर में प्रधानमंत्री की भूमिका

गठबंधन सरकार  का अर्थ:-जब कोई राजनीतिक दल का पूर्णतया बहुमत नहीं होता है तब किसी अन्य राजनीतिक दल के समर्थन के सहायता से दोनों दल मिलकर सरकार बनाते है। इस प्रकार बनाई गयी सरकार को गठबंधन सरकार की राजनीति कहते है ।

वर्ष 1977 में भारत में पहली बार गठबंधन सरकार बनी ।1975 में भारत में आपातकाल लगने के बाद गठबंधन को और बढ़ावा मिला तथा वर्ष 1989 में भारत में दूसरी बार गठबंधन सरकार बनी |

भारतीय राजनीति के शुरुआती दौर को कांग्रेस प्रणाली का दौर भी कहा जाता है। धीरे-धीरे कांग्रेस की लोकप्रियता में कमी की वजह से बाकी दूसरे दलों को उभरने का मौका मिला । भारत में गठबंधन की राजनीति की शुरुआत होने लगी । आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार को पहली गठबंधन सरकार माना जाता है । उसके बाद 1977 से लेकर और 1989 में और 1989 से लेकर आज तक गठबंधन का दौर चल रहा है ।

पहली गठबंधन सरकार:- आजादी के बाद कई गठबंधन सरकारे बनी । सबसे पहली गठबंधन सरकार 1977 की जनता पार्टी थी। इस सरकार ने 1977 में जब चुनाव हुए तो कई दलों ने मिलकर जनता पार्टी का निर्माण किया था । जनता पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिला था हालांकि यह सरकार ज्यादा नहीं चल पाई। लेकिन देश के अंदर पहली बार कांग्रेस विरोधी और गठबंधन सरकार बनी । इस सरकार में सबसे पहले मोरारजी देसाई और बाद में चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने ।

दूसरी गठबंधन सरकार:-  दूसरी गठबंधन सरकार 1989 में बनी राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार जिसमें वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया । राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बीजेपी और वाम मोर्चा ने बाहर से समर्थन दिया । लेकिन 11 महीने बाद बीजेपी ने समर्थन वापस ले लिया । इसलिए यह सरकार गिर गई। इसके बाद नवंबर 1990 में चंद्रशेखर के नेतृत्व में जनता दल सेकुलर की सरकार बनी । जिसको कांग्रेस ने अपना समर्थन दिया लेकिन यह सरकार भी ज्यादा नहीं चल पाई और समय बाद यह सरकार भी गिर गई। एक बात ध्यान देने वाली यह है कि जिस सरकार को कांग्रेस समर्थन देती है, उसे बीजेपी कभी समर्थन नहीं देती और जिसे बीजेपी समर्थन देती है, उसे कांग्रेस कभी समर्थन नहीं देती ।

 

                         4. संसदीय विशेषाधिकार

अनुच्छेद (Article) 105 में संसद के दोनों सदनों(लोकसभा, राज्य सभा) की तथा उनके सदस्यों और समितियों की शक्तियां और विशेषाधिकार की बात की गयी है ये विशेष अधिकार इसलिए दिए गये है ताकि सदनके सदस्य और समितियां स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकें

सामूहिक विशेषाधिकार

  • सदन के सदस्य या अधिकारी सदन की अनुमति के बिना सदन की कार्यवाही के सम्बन्ध में किसी न्यायालय में साक्ष्य नहीं देंगे व दस्तावेज पेश नहीं करेंगे
  • सदन की अनुमति प्राप्त किये बिना सदन के परिसर में गिरफ्तारी नहीं हो सकती
  • सदन को किसी भी बाहरी व्यक्ति को अपनी कार्यवाही से बाहर करने का अधिकार है (महान्यायवादी को छोड़ कर)प्रत्येक सदन को अपनी कार्यवाही को प्रकाशित करने या प्रकाशित होने से रोकने का अधिकार है
  • सदन को अपने कार्य संचालन के लिए नियम बनाने का अधिकार है ।
  • संसद की कार्यवाहियों की जाँच करने के सम्बन्ध में न्यायपालिका पर रोक लगाई गयी है

व्यक्तिगत विशेषाधिकार

  • हर सांसद को सदन में कुछ भी बोलने की आजादी है इसके लिए उसे किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है लेकिन किसी न्यायाधीश (सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय) के आचरण पर तब तकटिप्पणी नहीं की जा सकती जब तक उसे हटाने का प्रस्ताव सदन में नहीं लाया जाये
  • संसद के सत्र के दौरान गवाही के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता ।
  • संसद के सत्र प्रारम्भ होने के 40 दिन पहले, सत्र के दौरान और सत्र (Session) समाप्ति के 40 दिन बादतक दीवानी मामलों में गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
  • प्रत्येक सांसद को सदन में मत देने का अधिकार है।

 

5. रिट

रिट एक लिखित आदेश होता है जो किसी भी सरकारी संस्था के कार्य को करने के लिए अथवा किसी कार्य को ना करने के लिए न्यायालय द्वारा दिया जाता है।

रिट सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालय का एक लिखित आदेश है जो भारतीय नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ संवैधानिक उपचार का आदेश देता है।

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 32 संवैधानिक उपायों से संबंधित है जो एक भारतीय नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ भारत के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय से मांग सकता है। वही लेख सर्वोच्च न्यायालय को अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट जारी करने की शक्ति देता है जबकि उच्च न्यायालय के पास अनुच्छेद 226 के तहत समान शक्ति है। रिट- बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, सर्टिओरीरी, क्वो वारंटो, और निषेध ।

  1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण

हैबियस कॉर्पस’ शब्द का लैटिन अर्थ है ‘शरीर का होना’। इस रिट का इस्तेमाल गैरकानूनी नजरबंदी के खिलाफ व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को लागू करने के लिए किया जाता है। बंदी प्रत्यक्षिकरण के माध्यम से, सर्वोच्च न्यायालय/उच्च न्यायालय एक व्यक्ति को जिसने किसी अन्य व्यक्ति को गिरफ्तार किया है, उसके शव को न्यायालय के समक्ष लाने का आदेश देता है।

  1. परमादेश

इस रिट का शाब्दिक अर्थ है ‘हम आज्ञा देते हैं।’ इस रिट का उपयोग अदालत द्वारा उस सरकारी अधिकारी को आदेश देने के लिए किया जाता है जो अपने कर्तव्य का पालन करने में विफल रहा है या अपने कर्तव्य को करने से इनकार कर दिया है, अपना काम फिर से शुरू करने के लिए। सार्वजनिक अधिकारियों के अलावा, एक ही उद्देश्य के लिए किसी भी सार्वजनिक निकाय, एक निगम, एक अवर न्यायालय, एक न्यायाधिकरण या सरकार के खिलाफ परमादेश जारी किया जा सकता है।

  1. निषेध

निषेध’ का शाब्दिक अर्थ है ‘निषेध करना’। एक अदालत जो उच्च स्थिति में है, एक अदालत के खिलाफ एक निषेध रिट जारी करती है जो बाद में अपने अधिकार क्षेत्र से अधिक होने से रोकने के लिए या उस अधिकार क्षेत्र को हड़पने से रोकने की स्थिति में है जो उसके पास नहीं है। यह निष्क्रियता को निर्देशित करता है।

  1. सर्टिओरिअरी

सर्टिओरी’ की रिट का शाब्दिक अर्थ ‘प्रमाणित होना’ या ‘सूचित होना’ है। यह रिट एक उच्च न्यायालय द्वारा निचली अदालत या ट्रिब्यूनल को जारी की जाती है जो उन्हें आदेश देती है कि या तो उनके पास लंबित मामले को अपने पास स्थानांतरित कर दें या किसी मामले में उनके आदेश को रद्द कर दें। यह अधिकार क्षेत्र की अधिकता या अधिकार क्षेत्र की कमी या कानून की त्रुटि के आधार पर जारी किया जाता है। यह न केवल रोकता है बल्कि न्यायपालिका में गलतियों का इलाज भी करता है।

  1. क्यू-वारंटो

‘Quo-Warranto’ की रिट का शाब्दिक अर्थ ‘किस अधिकार या वारंट द्वारा’ है। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय यह रिट किसी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक कार्यालय के अवैध हड़पने को रोकने के लिए जारी करता है। इस रिट के माध्यम से, अदालत किसी व्यक्ति के सार्वजनिक कार्यालय के दावे की वैधता की जांच करती है।

 

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Pawan Sah